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जैन साहित्य
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श्वेताम्बर सम्प्रदायका सम्पूर्ण जैनागम छह भागों में विभक्त है, १ ग्यारह अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण और विपाकसूत्र । २ बारह उपांगऔपपातिक, राजप्रश्न, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति. निरयावली, कल्पावतंस, पुष्पिक, पुष्पचूलिक और वह्निदशा । ३ दस प्रकीर्णक-चतुःशरणं, आतुर प्रत्याख्यान, भक्त, संस्तार, तन्दुलवचारिक, चन्द्रवेधक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान और वीरस्तव । ४ छह छेदसूत्र - निशीथ महानिशीथ, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प, पञ्चकल्प | ५ दो सूत्र - नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार । ६ चार मूलसूत्रउत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक और पिण्डनियुक्ति । ये पैंतालीस ग्रन्थ आगम कहे जाते हैं। इनकी भाषा आर्पप्राकृत कहलाती है। इनमें आचार, व्रत, जैनतत्त्व, ज्योतिष, भूगोल आदि विविध विषयोंका वर्णन है। दिगम्बर सम्प्रदायके साहित्य में अंग और अंगबाह्य प्रन्थोंके नामों तथा उनमें वर्णित विषयों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उसमें उपांग आदि भेद नहीं हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञमिको उपांग माना है किन्तु दिगम्बर साहित्यमें इनकी गणना दृष्टिवादके एक भेद परिकर्म में की है। इसी तरह दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार और निशीथ नामके ग्रन्थोंको अंगबाह्य बतलाया है । दिगम्बर सम्प्रदायमें अंगोंके अतिरिक्त जो भी साहित्य हैं वह सब अंगवाह्य माना गया है ।
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श्वेताम्बर परम्परामें देवर्द्धिगणिके पश्चात् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण नामके एक विशिष्ट आचार्य हुए। इनका विशेषा
अनुसार संकलन करके उन्हें पुस्तकमें लिखवाया । इसलिए मूलमें गणधर प्रतिपादित होनेपर भी संकलन करनेके कारण सभी आगमोंके कर्ता श्रीदेव. द्विगणिक्षमाश्रमण कहलाये ।'