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________________ जैन सूक्तियाँ ३८७ तापर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई । अन्ध असूझनकी अखियानमें डारत है रज राम दुहाई।।-भूधरदास। २६ राग उदै भोग भाव लागत सुहावनेसे, बिना राग ऐसे लागै जैसे नाग कारे हैं। राग ही सों पाग रहे तनमें सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं ।। राग सों जगतरीति झूठी सब सांचो जान, राग मिटै सूझत असार खेल सारे हैं। रागी विन रागोके विचारमें बड़ोई भेद, जैसे भटा पच काहू काहूको बयारे हैं ॥ -भूधरदास । २७ ज्यों समुद्रमें पवन ते चहुँदिसि उठत तरंग। ___त्यों आकुलता सौं दुखित लह न समरस रंग ॥ -वृन्दावन । २८ चाहत है धन होय किसी विधि तो सब काज सर जियरा जी। गेह चिनाय करूं गहना कुछ, व्याहि सुता सुत बाँटिय भाजी ॥ चिंतत यों दिन जाहिं चले जम आनि अचानक देत दगा जी। खेलत खेल खिलारि गये रहि जाय रुपी शतरंजकी बाजी ।। -भूधरदास ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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