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जैनधर्म
२१ यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ।
तथा तथा समायाति संवित्तो तत्त्वमुत्तमम् ॥ - पूज्यपाद | अर्थ - 'ज्यों ज्यों आत्म तत्त्वका अनुभव होता जाता है त्यों-त्यों इन्द्रिय विषय सुलभ होते हुए भी नहीं रुचते । और ज्यों-ज्यों इन्द्रिय विषय सुलभ होते हुए भी नहीं रुचते, त्यों-त्यों आत्मतत्त्वका अनुभव होता जाता है ।'
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२२ अपकुर्वति कोपश्चेत् किं न कोपाय कुप्यसि । त्रिवर्गस्यापवर्गस्य जीवितस्य च नाशिने ॥
-वादीभसिंह |
अर्थ – यदि अपकार करनेवालेपर कोप करना है तो फिर कोपपर ही कोप क्यों नहीं करते, क्योंकि कोप धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष और जीवनका भी नाश करनेवाला है ।
२३ अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता ।
कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि । वादीभसिंह । अर्थ - 'जो दूसरोंके दोषोंकी तरह अपने भी दोषको देखता है, उसके समान कौन हैं ? वह शरीरसे युक्त होते हुए भी वास्तवमें मुक्त है ।'
२४ आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । तत्कियद् कियदायाति वृथा वै विषयैषिता ॥
गुणभद्र । अर्थ - 'प्रत्येक प्राणीका आशारूपी गड्ढा इतना विशाल है कि उसके सामने यह पूरा विश्व भी अणुके तुल्य है । ऐसी स्थिति में यदि इस विश्वका बटवारा किया जाय तो प्रत्येकके हिस्से में कितना - कितना आयगा अतः विषयोंकी चाह व्यर्थ ही है।'
हिन्दी
२५ राग उदै जग अन्ध भयो सहर्जाह सब लोगन लाज गँवाई । सीख बिना नर सीखत हैं विषयादिक सेवनकी सुरवाई ॥