________________
२५
जैन सूक्तियाँ
३८५
यह समझ पैदा नहीं हुई, तो श्रुताभ्यासमें परिश्रम करना व्यर्थ ही हुआ ।'
१६ कोऽन्धो योऽकार्यरतः को वधिरो यः श्रुणोति न हितानि ।
को मूको य: काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति ॥ - प्रश्नोत्तर रत्नमाला ।
अर्थ- 'अन्धा कौन है ? जो न करने योग्य बुरे कामोंको करनेमें लीन रहता है। बहरा कौन है ? जो हितकी बात नहीं सुनता । गूँगा कौन है ? जो समयपर प्रिय वचन बोलना नहीं जानता ।'
१७ पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः ।
फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ - गुणभद्राचार्य । अर्थ - 'मनुष्य पुण्यका फल सुख तो चाहते हैं किन्तु पुण्य कर्म करना नहीं चाहते । और पापका फल दुःख कभी नहीं चाहते, किन्तु पापको बड़े यत्नसे करते हैं ।'
१८ तत्त्वज्ञानविहीनानां नैर्ग्रन्थ्यमपि निष्फलम् ।
न हि स्थाल्यादिभिः साध्यमन्नमन्ये रतण्डुलैः ॥ — शत्रचूडामणि ।
अर्थ- 'जो लोग तत्त्वज्ञानसे रहित हैं उनका निर्मन्थ साधु बनना भी निष्फल है; क्योंकि यदि भोजनकी सामग्री चावल वगैरह नहीं है तो केवल बटलोही वगैरह पात्रोंसे हो भोजन नहीं बनाया जा सकता ।'
१९ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नंव मोहवान् ।
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ॥ - रत्नकरंड श्रा० । अर्थ - 'जो गृहस्थ होकर भी निर्मोह हैं वह मोक्षके मार्ग में स्थित हैं, परन्तु जो मुनि होकर भी मोहो है वह मोक्षके मार्ग स्थित नहीं हैं। अतः मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है ।
२० यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।
तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि ॥