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सिद्धान्त
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वाले धर्मोका समूह है तो उस अनेक धर्मात्मक वस्तुका जानना उतना कठिन नहीं है, जितना शब्दोंके द्वारा उसे कहना कठिन है ; क्योंकि एक ज्ञान अनेक धर्मोको एक साथ जान सकता हैं, किन्तु एक शब्द एक समय में वस्तुके एक ही धर्मका आंशिक व्याख्यान कर सकता है । इसपर भी शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताके अधीन है । वक्ता वस्तुके अनेक धर्मोमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचन व्यवहार करता है । जैसे, देवदत्तको एक ही समय उसका पिता भी पुकारता है और उसका पुत्र भी पुकारता है । पिता उसे 'पुत्र' कहकर पुकारता है और उसका पुत्र उसे 'पिता' कहकर पुकारता है । किन्तु देवदत्त न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है किन्तु पिता भी है और पुत्र भी है । इसलिए पिताकी दृष्टिसे देवदत्तका पुत्रत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं और पुत्रकी दृष्टि देवदत्तका पितृत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण हैं; क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुमेंसे जिस धर्मकी विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहाता है और इतर धर्म गौण । अतः जब वस्तु अनेक धर्मात्मक प्रमाणित हो चुकी और शब्द में इतनी सामर्थ्य नहीं पाई गई जो उसके पूरे धर्मोका कथन एक समय में कर सके । तथा प्रत्येक वक्ता अपनी-अपनी दृष्टिमं वचन व्यवहार करता हुआ देखा गया तो वस्तुका स्वरूप समझ में श्रोताको कोई धोखा न हो, इसलिये स्याद्वादका आविष्कार हुआ।
'स्याद्वाद' सिद्धान्त के अनुसार विवक्षित धर्म से इतर धर्माका द्योतक या सूचक 'स्थान' शब्द समस्त वाक्योंके साथ गुप्तरूपसे सम्बद्ध रहता है । स्यान शब्दका अभिप्राय 'कथंचिन' या 'किसी अपेक्षा' से है । अतः संसार में जो कुछ है वह किसी अपेक्षा नहीं भी है । इसी अपेक्षावादका सूचक 'म्यान' शब्द है, जिसका प्रयोग अनेकान्तवादके लिये आवश्यक है; क्योंकि 'स्यात्' शब्द के बिना 'अनेकान्त' का प्रकाशन संभव नहीं है ।