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जैनधर्म अतः अनेकान्त दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु 'स्यात् सत्' और 'स्यात् असत' है। ___ कोई कोई विद्वान 'स्यात्' शब्दका प्रयोग 'शायद' के अर्थ में करते हैं। किन्तु शायद शब्द अनिश्चितताका सूचक है, जब कि स्यात् शब्द एक निश्चित अपेक्षावादका सूचक है। इस प्रकार अनेकान्तवादका फलितार्थ स्याद्वाद है, क्योंकि स्याद्वादके बिना अनेकान्तवादका प्रकाशन संभव नहीं है । अतः एक ही वस्तुके सम्बन्धमें उत्पन्न हुए विभिन्न दृष्टिकोणोंका समन्वय स्याद्वादके द्वारा किया जाता है।
हम ऊपर लिख आये हैं कि शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताके अधीन है, अतः प्रत्येक वस्तुमें दोनों धर्मोके रहनेपर भी वक्ता अपने अपने दृष्टिकोणसे उन धर्मोंका उल्लेख करते हैं। जैसे-दो आदमी कुछ खरीदनके लिये एक दुकानपर आते हैं । वहाँ किसी वस्तुको एक अच्छी बतलाता है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है। दोनोंमें बात बढ़ जाती है । तब तीसरा आदमी उन्हें समझाता है-'भई क्यों झगड़ते हो ? यह वस्तु अच्छी भी है और बुरी भी । तुम्हारे लिये अच्छी है और इनके लिये बुरी है। अपनी अपनी दृष्टि ही तो है। ये तीनों व्यक्ति तीन प्रकारका वचन व्यवहार करते हैं। पहला विधि करता है, दूसरा निषेध, और तीसरा विधि और निषेध । ___ वस्तुके उक्त दोनों धर्मोको यदि कोई एक साथ कहना चाहे तो नहीं कह सकता; क्योंकि एक शब्द एक समयमें विधि और निषेधसे एकका ही कथन कर सकता है ऐसी अवस्थामें वस्तु अवाच्य ठहरती है अर्थात् उसे शब्दके द्वारा नहीं कहा जा सकता । उ पार वचन व्यवहारोंको दार्शनिक भाषामें स्यात् सत्, स्यात् अमन , स्यात् सदसत् और स्यात् अवक्तव्य कहते हैं। सप्तभंगीके मूल यही चार भंग हैं। इन्होंके संयोगसे सात भंग होते हैं । अर्थात् चतुर्थ भंग स्यात् अवक्तव्यके साथ क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे भंगको मिलानेसे पाँचवाँ, छठा और