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जैनधर्म जैसे उसके व्याख्याताओंको भी भ्रम हुआ, उसमें यदि साधारणजनोंको व्यामोह हो तो अचरज ही क्या है। __ वादगयणके सूत्र 'नकम्मिन्नसंभवात्' (२-५-३३) की व्याख्या करते हुए स्वामी शंकराचार्यने इस सिद्धान्तपर जो सबसे बड़ा दृपण दिया है वह है अनिश्चितता' । उनका कहना है कि 'वस्तु है और नहीं भी है ऐसा कहना अनिश्चितताको बतलाता है। अर्थात् ससे वस्नुका कोई निश्चित स्वरूप नहीं ग्हता । और अनिश्चितता संशयकी जननी है। अतः यदि जैन सिद्धान्तके अनुमार वस्तु अनिश्चित है तो उसमें निःसंशय प्रवृत्ति नहीं हो सकी। किन्तु ऊपरके उदाहरणोंसे इस आपत्तिका परिहार स्वयं हो जाता है। हम व्यवहार में भी परस्पर विरोधी दो धर्म एक ही वस्तुमें पाते हैं जैसे भारत स्वदेश भी है और विदेश भी. देवदत्त पिता भी है और पुत्र भी। इसमें न कोई अनिश्चितता है और न संशय । क्योंकि भारतीयोंकी दृष्टिसे भारत स्वदेश है और विदेशियोंकी दृष्टिसे विदेश है। यदि कोई भारतीय भारतको स्वदेश ही समझता है तो वह भारतको केवल अपने ही दृष्टिकोणसे देखता है, दूसरे भारतीयेतरोंके दृष्टिकोणसे नहीं, और इसलिए उसका भारतदर्शन एकांगी है। पूर्ण दर्शनके लिए सब दृष्टिकोणोंको दृष्टिमें रखना आवश्यक है । अतः शंकराचार्यका यह कथन कि-"एक धर्मी में परस्परमें विरुद्ध सत्त्व और असत्त्व धर्मोका होना असंभव है ; क्योंकि सत्त्वधर्मके रहनेपर असत्वधर्म नहीं रह सकता और असत्त्वधर्मकं रहनेपर सत्त्वधर्म नहीं रहता, अतः आहेत मत असंगत है" कहाँ तक संगन है यह निष्पक्ष पाठक ही विचार करें।
स्याद्वाद इस प्रकार जब प्रत्येक वस्तु परस्परमें विरोधी प्रतीत होने१. ब्रह्मसूत्र २-२-३३ का शांकरभाष्य ।