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चारित्र
१७९ उसके दाँतों और आँतोंकी बनावट इसका साक्षी है। न माँसाहारसे वह बल और शक्ति ही प्राप्त होती हैं जो घी, दूध और फलाहारसे प्राप्त होती है। इसके सिवा मांसाहार तामसिक है, उससे मनुष्यकी मात्विक वृत्तियोंका घात होता है। इसके विषयमें काफी लिखा जा सकता है किन्तु यहाँ उसके लिये उनना स्थान नहीं है । इसी तरह शिकार खेलना भी मनुष्यकी नृशंसना है । व्याघ्र वगैरह हिंसक पशु भी तभी दूसरे जानवरोंपर आक्रमण करते हैं जब उन्हें भूख सताती है। किन्तु मनुष्य उनसे भी गया बीता है, जो डरसे भागते हुए पशुआंक पीले घोड़ा दौड़ाकर और बाण या बन्दुककी गोलीसे उनको भूनकर अपना दिल बहलाना है । कुछ लोगोंका कहना है कि शिकार खेलनेसे वीरता आती है, इसलिये मृगया करना क्षत्रियका कर्तव्य है। उन्होंने शायद करता और निर्दयताको वीरता समझा है। किन्तु वीरता आन्तरिक शोर्य है जो तेजम्वी पुरुषों में समय ममयपर अन्याय व अत्याचारका दमन करनेक लिय प्रकट हानी है । डरकर भागते हुए मूक पशुओंके जीवनके साथ होली खेलना शुरवीरता नहीं है, कायरता है। जो एसा करते हैं, वे प्रायः कायर होते हैं । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमने हिन्दू मुम्लिम दंगेके ममय बनारसमें देखा। हमारे मुहालमें अधिकतर वस्ती मल्लाहोंकी है। वे इतने कर होते हैं कि बड़बड़े घड़ियालोंको पकड़कर साग मीकी तरह काट डालते हैं, और खा जाते है। किन्तु हिन्दू-मुम्लिम दंगक समय उनकी कायरता दयनीय थी। अपनी नाँवों में बैठ बैठकर सब उस पार भाग गये थे और जो शेप थे वे भी जैन विद्यार्थियोंसे अपनी रक्षा करनेकी प्रार्थना किया करते थे। अतः मांसाहार या शिकार खेलनेसे शूरवीरताका काई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये इनसे बचना चाहिये।
इसी तरह धर्म समझकर देवीके सामने बकरों, भसों और सूकरों का बलिदान करना भी एक प्रकारकी मूढ़ता और नृशं