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जैनधर्म प्रोत्साहन मिला और श्वेताम्बर सम्प्रदायकी सृष्टि हुई। ऐसा कुछ विद्वानोंका मत है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० बेचरदासजीने लिखा है
'श्रीपाश्र्वनाथ और श्रीवर्धमानके शिष्योंके २५० वर्षके दर. म्यान किसी भी समय पाश्वनाथके सन्तानीयोंपर उस समयके आचारहीन ब्राह्मण गुरुओंका असर पड़ा हो और इसी कारण उन्होंने अपने आचारोंमें से कठिनता निकालकर विशेष नरम और सुकर आचार बना दिये हों यह विशेष संभावित है। ४ x x पार्श्वनाथके बाद दीर्घ तपस्वी वर्धमान हुए। उन्होंने अपना आचरण इतना कठिन और दुस्सह रक्खा कि जहाँतक मेरा ख्याल है इस तरहका कठिन आचरण अन्य किसी धर्माचार्यने आचरित किया हो ऐसा उल्लेख आजतकके इतिहासमें नहीं मिलता। x x x वर्धमानका निर्वाण होनेसे परमत्याग मार्गके चक्रवर्तीका तिरोधान हो गया और ऐसा होनेसे उनके त्यागी निम्रन्थ निर्नायकसे हो गये। तथापि मैं मानता हूँ कि वर्धमानके प्रतापसे उनके बादको दो पीढ़ियोंतक श्रीवर्धमानका वह कठिन त्यागमार्ग ठीकरूपसे चलता रहा था। यद्यपि जिन सुखशीलियोंने उस त्यागमार्गको स्वीकारा था उनके लिए कुछ छुटे रखी गयी थी और उन्हें ऋजुप्राज्ञके सम्बोधनसे प्रसन्न रखा गया था। तथापि मेरी धारणामें जब वे उस कठिनताको सहन करने में असमर्थ निकले, और श्रीवर्धमान, सुधर्मा और जम्बू जैसे समर्थ त्यागीकी छायामें वे ऐसे दब गये थे कि किसी भी प्रकारकी चों पटाक किये बिना यथा तथा थोड़ी सी छूट लेकर भी वर्धमानके मार्गका अनुसरण करते थे। परन्तु इस समय वर्धमान, सुधर्मा या जम्बू कोई भी प्रतापी पुरुष विद्यमान न होनेसे उन्होंने शीघ्र ही यह कह डाला कि जिनेश्वरका आचार जिनेश्वरके निर्वाणके साथ ही निर्वाणको प्राप्त हो गया। x x मेरी मान्यतानुसार संक्रान्तिकालमें ही श्वेताम्बरता और दिगम्बरताका बीजारोपण हुआ है और जम्बू स्वामी