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सामाजिक रूप
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भद्रबाहु स्वामी नेपालकी ओर चले गये थे। जब दुर्भिक्ष हटा और पाटलीपुत्रमें बारह अंगोंका संकलन करनेका आयोजन किया गया तो भद्रबाहु उसमें सम्मिलित नहीं हो सके । फलतः भद्रबाहु और संघ के साथ कुछ खींचातानी भी हो गयी जिसका वर्णन आचार्य हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्व में किया है । इसी घटनाको लक्ष्यमें रखकर डा० हर्मन जेकोवीने जैनसूत्रोंकी अपनी प्रस्तावना में लिखा है
'पाटलीपुत्र में भद्रबाहुकी अनुपस्थितिमें ग्यारह अंग एकत्र किये गये थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही भद्रबाहुको अपना आचार्य मानते हैं। ऐसा होनेपर भी श्वेताम्बर अपने स्थविरोंकी पट्टावली भद्रबाहुके नामसे प्रारम्भ नहीं करते किन्तु उनके समकालीन स्थविर सम्भूतिविजयके नामसे शुरू करते हैं । इससे यह फलित होता है कि पाटलीपुत्रमें एकत्र किये गये अंग केवल श्वेताम्बरोंके ही माने गये, समस्त जैनसंघ के नहीं' ।
इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि संघभेदका बीजारोपण उक्त समय में ही हो गया था ।
श्वेताम्बर साहित्यके अनुसार प्रथम जिन श्रीऋषभदेवने और अन्तिम जिन श्रीमहावीरने तो अचेलक धर्मका ही उपदेश दिया । किन्तु बीच बाईस तीर्थङ्करोंने सचेल और अचेल दोनों धर्मोंका उपदेश दिया । जैसा कि पञ्चाशक में लिखा है
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'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं होइ सचेलो अचेलो य ॥१२॥'
और इसका कारण यह बतलाया है कि प्रथम और अन्तिम जिनके समय साधु वक्रजड़ होते थे - जिस तिस बहानेसे त्याज्य वस्तुओंका भी सेवन कर लेते थे । अतः उन्होंने स्पष्टरूपसे अचेलक अर्थात् वस्त्ररहित धर्मका उपदेश दिया। इसके अनुसार पार्श्वनाथके समय के साधु सवन रहते थे और उनके महावीरके संघ में मिल जानेपर आगे चलकर शिथिलाचारको