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इतिहास
तरह वे प्रथम सतयुगके अन्तमें हुए । तथा अब तक २८ सतयुग बीत गये हैं। इससे भी उनके समयकी सुदीर्घताका अनुमान लगाया जा सकता है। अतः जैनधर्मका आरम्भकाल बहुत प्राचीन है। भारतवर्ष में जब आर्योंका आगमन हुआ उस समय भारतमें जो द्रविड़ सभ्यता फैली हुई थी, वस्तुतः वह जैन सभ्यता ही थी। इसीसे जैन परम्परामें बादको जो संघ कायम हुए उनमें एक द्रविड़संघ भी था।
२. ऋषभदेव कालके उक्त छ भागोंमें से पहले और दूसरे भागमें न कोई धर्म होता है, न कोई राजा और न कोई समाज । एक परिवारमें पति और पत्नी ये दो ही प्राणी होते हैं। पासमें लगे वृक्षोंसे, जो कल्पवृक्ष कहे जाते हैं उन्हें अपने जीवन के लिये आवश्यक पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, उसीमें वे प्रसन्न रहते हैं। मरते समय एक पुत्र और एक पुत्रीको जन्म देकर वे दोनों चल बसते हैं। दोनों बालक अपना-अपना अंगूठा चूसकर बड़े होते हैं और बड़े होनेपर पति और पत्नी रूपसे रहने लगते हैं। तीसरे कालका बहुभाग बीतने तक यही क्रम रहता है और इसे भोग-भूमिकाल कहा जाता है-; क्योंकि उस समयके मनुष्योंका जीवन भोगप्रधान रहता है। उन्हें अपने जीवन-निर्वाहके लिये कुछ भी उद्योग नहीं करना पड़ता। किन्तु इसके बाद परिवर्तन प्रारम्भ होता है। धीरे-धीरे उन वृक्षोंसे आवश्यकताकी पूर्तिके लायक सामान मिलना कठिन हो जाता है और परस्परमें झगड़े होने लगते हैं। तव चौदह मनुओंकी उत्पत्ति होती है। उनमेंसे पाँचवाँ मनु वृक्षोंकी सीमा निर्धारित कर देता है। जब सीमा पर भी झगड़ा होने लगता है तो छठवाँ मनु सीमाके स्थानपर
१. मेजर जनरल जे. सी. आर. फर्लाग महोदय अपनी The Short Study in Science of Comparative Religion नामकी पुस्तकमें लिखते हैं-'ईसासे अगणित वर्ष पहलेसे जैनधर्म भारतमें फैला हुआ था। आर्य लोग जब मध्य भारत में आये तब यहाँ जैन लोग मौजूद थे।