SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म डालती है और जैनधर्मकी प्राचीनताके विषयमें अकाट्य प्रमाण उपस्थित करती है। तथा यह बतलाती है कि प्राचीन समयमें भी वह अपने इसी रूपमें मौजूद था। ईस्वी सन् के प्रारम्भमें भी अपने विशेष चिह्नोंके साथ चौबीस तीर्थङ्करोंकी मान्यतामें दृढ़ विश्वास था'। ___ इन शिलालेखोंसे भी प्राचीन और महत्त्वपूर्ण शिलालेख खण्डगिरि उदयगिरि (उड़ीसा) की हाथी गुफासे प्राप्त हुआ है जो जैन सम्राट खारवेलने लिखाया था। इस २१०० वर्षके प्राचीन जैन शिलालेखसे स्पष्ट पता चलता है कि मगधाधिपति पुष्यमित्रका पूर्वाधिकारी राजा नन्द कलिंग जीतकर भगवान श्रीऋषभदेवकी मूर्ति, जो कलिंगराजाओंकी कुलक्रमागत बहुमूल्य अस्थावर सम्पत्ति थी, जयचिह्न स्वरूप ले गया था। वह प्रतिमा खारवेलने नन्दराजाके तीन सौ वर्ष बाद पुष्यमित्रसे प्राप्त की। जब खारवेलने मगधपर चढ़ाई की और उसे जीत लिया तो मगधाधिपति पुष्यमित्रने खारवेलको वह प्रतिमा लौटाकर राजी कर लिया। यदि जैनधर्मका आरम्भ भगवान महावीर या भगवान पार्श्वनाथके द्वारा हुआ होता तो उनसे कुछ ही समय बादकी या उनके समयकी प्रतिमा उन्होंकी होती। परन्तु जब ऐसे प्राचीन शिलालेखमें आदि तीर्थङ्करकी प्रतिमाका स्पष्ट और प्रामाणिक उल्लेख इतिहासके साथ मिलता है तो मानना पड़ता है कि श्रीऋषभदेवके प्रथम जैन तीर्थङ्कर होनेकी मान्यतामें तथ्य अवश्य है। ___ अब प्रश्न यह है कि वे कब हुए ? ऊपर बतलाया गया है कि जैन परम्पराके अनुसार प्रथम जैन तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेव इस अवसर्पिणीकालके तीसरे भागमें हुए, और अब उस कालका पाँचवाँ भाग चल रहा है अतः उन्हें हुए लाखों करोड़ों वर्ष हो गये। हिन्दू परम्पराके अनुसार भी जब ब्रह्माने सृष्टिके आरम्भ में स्वयंभू मनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया तो ऋषभदेव उनसे पाँचवी पीढ़ीमें हुए। और इस
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy