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जगह।
इतिहास श्रीऋषभदेव पहलेसे ही आठवें अवतार माने हुए थे। यदि श्रीबुद्धकी तरह महावीर भी एक नये धर्मके संस्थापक होते तो यह संभव नहीं था कि उन्हें छोड़ दिया जाता। अतः उनके सम्मिलित न करने और ऋषभदेवके आठवें अवतार माने जानेसे भी इस बातका समर्थन होता है कि हिन्दू परम्परामें अति प्राचीनकालसे ऋषभदेवको ही जैनधर्मके संस्थापकके रूपमें माना जाता है। यही वजह है जो उनके बाद में होनेवाले अजितनाथ और अरिष्टनेमि नामके तीर्थङ्करोंका निर्देश यजुर्वेदमें मिलता है।
ऐतिहासिक सामग्री इस प्रकार जैन और जैनेतर साहित्यसे यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव ही जैनधर्मके आद्य प्रवर्तक थे । प्राचीन शिलालेखोंसे भी यह बात प्रमाणित है कि श्रीऋषभदेव जैनधर्मके प्रथम तीर्थङ्कर थे और भगवान महावीरके समयमें भी ऋषभदेवकी मूर्तियोंकी पूजा जैन लोग करते थे। मथुराके कङ्काली नामक टीलेकी खुदाई में डाक्टर फूहररको जो जैन शिलालेख प्राप्त हुए वे करीब दो हजार वर्ष प्राचीन हैं, और उनपर इन्डोसिथियन ( Indc-sythian ) राजा कनिष्क हुविष्क और वासुदेवका सम्वत् है। उसमें भगवान ऋपभदेवकी पूजाके लिये दान देनेका उल्लेख है। ___ श्रीविंसेण्ट' ए० स्मिथका कहना है कि 'मथुरासे प्राप्त सामग्री लिखित जैन परम्पराके समर्थनमें विस्तृत प्रकाश
8. "The discoveries liave to a very large extent supplicd corroboration to ile written Jain tradition and they offer tangible in controvertible proof of the antiquity of the Jain religion and of its carly cxistence very much in its present form. The serics of twentyfour pontiffs (Tirthankaras ), each with his distinctive emblem, was evidently firmly believed in at the beginning of the Christian era.-TheJain Stupa..Mathura Intro. P.6.