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जैनधर्म की थी। इस संघके साधु पीछी नहीं रखते थे इसलिए यह संघ निप्पिच्छ कहलाता था। काष्ठासंघ माथुरान्वयके प्रसिद्ध आचार्योंमें सुभाषितरत्नसन्दोह आदि अनेक ग्रन्थोंके रचयिता आचार्य अमितगति थे जो राजा भोजके समकालीन थे। तथा लाट वागड़संघमें प्रद्युम्नचरित्र काव्यके कर्ता महासेन थे। यह भी राजा मुंज और भोजके समकालीन थे। ___ यद्यपि इन तीनों संघोंको देवसेन आचार्यने जैनाभास कहा है किन्तु इनका बहुत-सा साहित्य उपलब्ध है और उसका पठन-पाठन भी दिगम्बर सम्प्रदायमें होता है । हरिवंश पुराणके रचयिताने आचार्य देवनन्दिके पश्चात् वज्रसूरिका स्मरण किया है और उनकी उक्तियोंको धर्मशास्त्रके प्रवक्ता गणधरदेवकी तरह प्रमाण कहा है। यह वनसरि वहीं जान पड़ते हैं जिन्हें द्राविड़ संघका संस्थापक कहा जाता है। ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न होता है कि दर्शनसारके रचयिताने इन्हें जैनाभास क्यों कहा ? क्योंकि दर्शनसारकी रचना हरिवंशपुराणके पश्चात् वि० सं०९९० में हुई है। इसका समाधान यह हो सकता है कि देवसेन सूरिने दर्शनसारमें जो गाथाएँ दी हैं, वे पूर्वाचार्यप्रणीत हैं। पूर्वाचार्योंकी दृष्टि में द्रविड़ आदि संघोंके साधु जैनाभास ही रहे होंगे। इसीलिए दर्शनसारके रचयिताने भी उन्हें जैनाभास बतलाया है, अन्यथा जिस शिथिलाचारके कारण उन्होंने उक्त संघोंको जैनाभास कहा है, वह शिथिलाचार मूलसंघी मुनियोंमें भी किसी न किसी रूपमें प्रविष्ट हो गया था । वे भी मन्दिरोंकी मरम्मत आदिके लिये गाँव जमीन आदिका दान लेने लगे थे । उपलब्ध शिलालेखोंसे यह स्पष्ट है कि मुनियोंके अधिकारमें भी गाँव बगीचे रहते थे। वे मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करते थे, दानशालाएँ बनवाते थे । एक तरहसे उनका रूप मठाधीशोंके जैसा हो चला था। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उस समयमें शुद्धाचारी तपस्वी दिगम्बर मुनियोंका सर्वथा अभाव हो गया था, अथवा सब उन्होंके अनुयायी बन