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सामाजिक रूप गये थे। शास्त्रोक्त शुद्ध मार्गके पालनेवाले और उनको माननेवाले भी थे, तथा उसके विपरीत आचरण करनेवाले मठपतियोंकी आलोचना करनेवाले भी थे । पं० आशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतके दूसरे अध्यायमें इन मठपति साधुओंकी आलोचना करते हुए लिखा है-'द्रव्य जिन लिंगके धारी मठपति म्लेच्छोंके समान लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरण करते हैं। इनके साथ मन, वचन और कायसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये।'
ये मठाधीश साधु भी नग्न ही रहते थे, इनका बाह्यरूप दिगम्बर मुनियोंके जैसा ही होता था। इन्हींका विकसितरूप भट्टारक पद है।
तेरहपन्थ और बीसपन्थ भट्टारकी युगके शिथिलाचारके विरुद्ध दिगम्बर सम्प्रदायमें एक पन्थका उदय हुआ, जो तेरहपन्थ कहलाया । कहा जाता है कि इस पन्थका उदय विक्रमकी सत्रहवीं सदीमें पं० बनारसीदासजीके द्वारा आगरेमें हुआ था। जब यह पन्थ तेरह पन्थके नामसे प्रचलित हो गया तो भट्टारकोंका पुराना पन्थ बीस पन्थ कहलाने लगा। किन्तु ये नाम कैसे पड़े यह अभी तक भी एक समस्या ही है। इसके सम्बन्धमें अनेक उपपत्तियाँ सुनी जाती हैं किन्तु उनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता।
श्वेताम्बराचार्य मेघविजयने वि० सं० १७५७ के लगभग आगरेमें युक्ति प्रबोध नामका एक प्रन्थ रचा है। यह ग्रन्थ पं० बनारसीदासजीके मतका खण्डन करनेके लिये रचा गया हे । इसमें वाणारसी मतका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है
"तम्हा दिगंबराणं एए भटारगा वि णो पुज्जा। तिलतुसमेत्तो जेसिं परिग्गहो व ते गुरुणो ॥१६॥ जिणपडिमाणं भूसणमल्लारुहणाइ अंगपरियरणं । वाणारसिओ वारइ दिगंवरस्सागमाणाए ॥२०॥"