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________________ जैनधर्म -- अर्थात् – 'दिगम्बरोंके भट्टारक भी पूज्य नहीं हैं। जिनके तिलतुष मात्र भी परिग्रह हैं वे गुरु नहीं हैं । वाणारसी मतवाले जिन प्रतिमाओंको भूषणमाला पहनानेका तथा अंग रचना करनेका भी निषेध दिगम्बर आगमोंकी आज्ञासे करते हैं। ३०८ आजकल जो तेरह पन्थ प्रचलित है वह भट्टारकों या परिग्रहधारी मुनियोंको अपना गुरु नहीं मानता और प्रतिमाओंको पुष्पमालाएँ चढ़ाने और केसर लगानेका भी निषेध करता है. तथा भगवानकी पूजन सामग्रीमें हरे पुष्प और फल नहीं चढ़ाता । उत्तर भारतमें इस पन्थका उदय हुआ और धीरे-धीरे यह समस्त देशव्यापी हो गया । इसके प्रभाव से भट्टारकी युगका एक तरह से लोप हो हो गया । किन्तु इस पन्थभेदसे दिगम्बर सम्प्रदाय में फूट या वैमनस्यका बीजारोपण नहीं हो सका। आज भी दोनों पन्थोंके अनुयायी वर्तमान हैं, किन्तु उनमें परम्परमें कोई वैमनस्य नहीं पाया जाता । चूँकि आज दोनों पन्थोंका अस्तित्व कुछ मंदिरों में ही देखने में आता है, अतः जब कभी किन्हीं दुराग्रहियों में भले ही खटपट हो जाती हो, किन्तु साधारणतः दोनों हो पन्थवाले अपनी-अपनी विधिसे प्रेमपूर्वक पूजा करते हुए पाये जाते हैं । एक दो स्थानमें तो २० और १३ को मिलाकर उसका आधा करके साढ़े सोलह पन्थ भी चल पड़ा है । आजकलके अनेक निष्पक्ष समझदार व्यक्ति पन्थ पूछा जानेपर अनेकको साढ़े सोलह पन्थी कह देते हैं। यह सब दोनोंके ऐक्य और प्रेमका ही सूचक है । तारणपन्थ परवार जातिके एक व्यक्तिने जो बादको तारणतरण स्वामीके नाम से प्रसिद्ध हुए, ईसाकी पन्द्रहवीं शताब्दीके अन्तमें इस पन्थको जन्म दिया था । सन् १५१५ में ग्वालियर स्टेटके मल्हारगढ़ नामक स्थानमें इनका स्वर्गवास हुआ । उस स्थानपर
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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