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सामाजिक रूप उनकी समाधि बनी है और उसे नशियाँजी कहते हैं। यह तारणपंथियोंका तीर्थस्थान माना जाता है। यह पन्थ मूर्तिपूजाका विरोधी है। इनके भी चैत्यालय होते हैं, किन्तु उनमें शास्त्र विराजमान रहते हैं और उन्होंकी पूजा की जाती है किन्तु द्रव्य नहीं चढ़ाया जाता। तारण स्वामीने कुछ प्रन्य भी बनाये थे । इनके सिवा दिगम्बर आचार्योंके बनाये हुए प्रन्योंको भी तारणपन्थी मानते हैं। इस पन्थमें अच्छे धनिक और प्रतिष्ठित व्यक्ति मौजूद हैं । इस पन्थके अनुयायियोंकी संख्या दस हजारके लगभग बतलाई जाती है, और वे मध्यप्रान्तमें बसते हैं।
२. श्वेताम्बर सम्प्रदाय यह पहले लिख आये हैं कि साधुओंके वस्त्र परिधानको लेकर ही दिगम्बर और श्वेताम्बर भेदकी सृष्टि हुई थी। अतः आजके श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। उनके पास चौदह उपकरण होते हैं-१ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन, ४ पात्र प्रमार्जनिका, ५ पटल, ६ रजत्राण, ७ गुच्छक, ८-९ दो चादरें, १० ऊनी वस्त्र (कम्बल ), ११ रजोहरण, १२ मुखवस्त्र, १३ मात्रक, १४ चोल पट्टक । इनके सिवा वे अपने हाथमें एक लम्बा दण्ड भी लिए रहते हैं। पहले वे भी नग्न ही रहते थे। बादको वस्त्र स्वीकार कर लेनेपर भी विक्रमकी सातवीं आठवीं शताब्दीतक कारण पड़नेपर ही वे वस्त्र धारण करते थे और वह भी केवल कटिवन। विक्रमकी आठवीं शतीके श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने अपने संबोधप्रकरणमें अपने समयके साधुओंका वर्णन करते हुए लिखा है कि वे विना कारण भी कटिवस्त्र बाँधते हैं और उन्हें क्लीब-कायर कहा है। इस प्रकार पहले वे कारण पड़नेपर लँगोटी लगा लेते थे पीछे सफेद वस्त्र पहिनने लगे। फिर जिन मूर्तियोंमें भी लँगोटेका चिह्न बनाया जाने लगा। उसके बाद उन्हें वस्त्र-आभूषणोंसे सजानेकी प्रथा