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________________ २०६ जैनधर्म सकनेवाला न हो । उसके भोजन में शरीरपोषक तत्त्व रहते हैं किन्तु स्वास्थ्यको चौपट कर डालनेवाले और इन्द्रियोंकी विषयतृष्णाको भड़कानेवाले उत्तेजक पदार्थ नहीं होते। वह प्रकृतिविरुद्ध और संयोगविरुद्ध आहारसे सदा बचता है। साग सब्जी खाता है किन्तु शोध बीनकर । जो चीजें जमीनके अन्दर उगती हैं, जैसे, आलू, गाजरमूली वगैरह, उन्हें नहीं खाता । जैनधर्मकी दृष्टि से इस प्रकारकी सब्जियोंमें बहुत जीव वास करते हैं। तथा लौकिक दृष्टिसे भी जो साग सब्जी सूर्य के प्रकाशमें नहीं फूलती फलती वह सब तामसिक होती है। बहुतसे रोगोंमें डाक्टर' तक ऐसे पदार्थों के खानेका निषेध कर देते हैं । बर्षाकालमें पत्तेको शाक और बिना दला हुआ मूंग, उड़द वगैरह धान्य नहीं खाता है, क्योंकि उस समय उनमें प्रायः कीड़े वगैरह पड़ जाते हैं। __ ७-प्रतिदिन भोजन करनेसे पहले अपने द्वारपर खड़े होकर संसारसे विरक्त सच्चे साधुआंकी प्रतीक्षा करनी चाहिये, और यदि कोई ऐसे साधु महात्मा उस ओरसे निकलें, तो उन्हें आदरके साथ रोककर अपने निमित्त बनाये हुए भोजनमेंसे भक्तिपूर्वक भोजन कराना चाहिये। पीछे स्वयं भोजन करना चाहिये। इस तरह श्रावकके ये सात शील व्रत कहलाते हैं । इनमेंसे पहलेके तीन गुणव्रत कहे जाते हैं, क्योंकि उनके पालन करनेसे पहले कहे गये पाँच अणुव्रतोंमें विशेषता आती है, और पीछेके चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं क्योंकि उनके करनेसे मुनिधर्म ग्रहण १ इन पंक्तियोंके लेखकको इस बातका स्वयं अनुभव हो चुका है। एक बार खांसीसे पीड़ित होनेपर मुरादाबादके स्व० डा० बनर्जीने चिकित्सा प्रारम्भ करनेसे पूर्व जमीकन्द खाना छोड़ देनेका आदेश दिया। जब उनसे कहा गया कि इनका खाना तो हमारे धर्ममें ही बर्जित है तो वे बड़े प्रभावित हुए ।-ले०
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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