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चारित्र
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करनेकी शिक्षा मिलती है। शिक्षा अर्थात् अभ्यासके लिये जो व्रत किये जाते हैं वे शिक्षात कहे जाते हैं ।
३. सामायिकी - व्रत प्रतिमाका अभ्यासी जो श्रावक तीनों सन्ध्याओंमें सामायिक करता है और कठिन से कठिन कष्ट आ पड़नेपर भी अपने ध्यानसे विचलित नहीं होता - मन, वचन और काकी एकाग्रताको स्थिर रखता है उसे सामायिकी या सामायिक प्रतिमावाला श्रावक कहते हैं । यद्यपि श्रावक के लिए ऐसी एकाता अति कष्टसाध्य है किन्तु अभ्याससे सब संभव होता है। इसका उद्देश्य आत्माकी शक्तिको केन्द्रीभूत करना है । यद्यपि पहले व्रतों में भी सामायिक करना बतलाया है किन्तु वह अभ्यासरूप है और यह व्रतरूप है ।
४. प्रोषधोपवासी — पहले प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करनेकी विधि बतलाई है, वही यहाँ भी जानना चाहिये | अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ अभ्यासरूपसे उपवासका विधान है और यहाँ व्रतरूपसे ।
५. सचिनविरत – पहलेकी चार प्रतिमाओंका पालन करनेवाला जो दयालु श्रावक हरे साग, सब्जी, फल-फूल वगैरहको नहीं खाता है. उसे सचित्तविरत कहते हैं। असल में त्यागका उद्देश्य संयमका पालन करना है और संयमके दो रूप हैं - एक प्राणिसंयम और दूसरा इन्द्रिय-संयम । प्राणियोंकी रक्षा करनेको प्राणिसंयम कहते हैं और इन्द्रियोंको वशमें करनेका इन्द्रियसंयम कहते हैं । उत्तम तो यही है कि प्रत्येक त्यागमें दोनों संयमोंका पालन हो, किन्तु यदि दोनोंका पालन न हो सकता हो तो एकका पालन होना भी अच्छा ही है। जैनसिद्धान्तमें हरी वनस्पतिकी दो दशायें बतलाई हैं एक सप्रतिष्टित और दूसरी अप्रतिष्ठित प्रतिष्ठित दशामें प्रत्येक बनस्पतिमें अगणित जीवोंका वास रहता है और इसलिये उसे अनन्तकाय कहते हैं और अप्रतिष्ठित दशामें उसमें एक ही जीवका वास रहता | अतः जबतक