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जैनधर्म
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कोई वनस्पति प्रतिष्ठित या अनन्तकाय है तबतक उसका भक्षण नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसके भक्षण करनेसे अनन्त जीवों का घात होता है। किन्तु जब वही वनस्पति अप्रतिष्ठित हो जाती हैं - अर्थात् उसमें अनन्तकाय जीवोंका वास नहीं रहता तब उसे अचित्त करके खाना चाहिये । सचित्तको अचित करने के कई प्रकार हैं- उसे सुखा लिया जाये । ऐसा करने सचित्त वनस्पति अचित्त हो जाती है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि सचित्तको अचित्त करके खाने से क्या लाभ है ? जीव-रक्षा तो उसमें भी नहीं होती ? इसका समाधान यह है कि सचित्तको अनि करके खानेसे यद्यपि जीवरक्षा नहीं होती और इसलिये प्राणिसंयम नहीं पलता तथापि इन्द्रियसंयम पलता है; क्योंकि सचित्त वनस्पति पौष्टिक अतएव मादक होती है । उसे पका लेने, सुखा लेने या चाकूसे काटने से उसका पोषकतत्त्व नष्ट हो जाता है और इसलिये उसकी मादकता चली जाती है । अतः खानेके बाद वह इन्द्रियोंमें विकार पैदा नहीं करती, किन्तु शरीरकी स्थिति बनाये रखती है। धार्मिक दृष्टिसे जो भोजन शरीरकी स्थितिको बनाये रखकर इन्द्रियोंमें विकार पैदा नहीं करता वही भोजन श्रेष्ठ समझा जाता है । इसी दृष्टिसे पाँचवें दर्जका जैन श्रावक इन्द्रिय मदकारक सचित्त वनस्पतिके भक्षणका त्याग करता है ।
जैनशास्त्रों में प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित वनस्पतिकी अनेक पहचानें बतलाई हैं। जैसे, जो वनस्पति – चाहे वह जड़ हो, छाल हो, कोपल हो, शाखा हो, पत्ता हो, फूल हो या फल होतोड़नेपर झटसे समानरूपसे दो टुकड़ों में टूट जाती है यह सप्रतिष्ठित है और जो तोड़ो कहींसे टूटती है कहींसे, वह अप्रतिटित है । जिस बनस्पतिको छीलनेपर मोटा छिलका उतरता है। वह सप्रतिष्ठित है और जिसका छिलका पतला उतरता है वह अप्रतिष्ठित है । जिस वनस्पतिके ऊपरकी धारियाँ, या शिराएँ स्पष्टरूपसे नहीं निकली हैं, या अन्दर फाँकें अलग अलग नहीं