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चारित्र
२०५ ज्जीवन के लिये परिमाण कर लेना चाहिये कि मैं अमुक वस्तु इतने समयतक इतने परिमाणमें भोगूंगा। ऐसा परिमाण करके उससे अधिक वस्तुको चाह नहीं करना चाहिये । जो वस्तु एकबार ही भोगी जा सकती है उसे भोग कहते हैं जैसे फूलोंकी माला या भोजन । और जो वस्तु बार-बार भोगी जा सकती है उसे उपभोग कहते हैं, जैसे वस्त्र। इन दोनों ही प्रकारकी वस्तुओंका नियम कर लेना चाहिये । नियम कर लेनेसे एक तो गृहस्थकी चित्तवृत्तिका नियमन होता है, दूसरे इससे वस्तुओंका अनावश्यक संचय और अनावश्यक उपयोग रुक जाता है, और वस्तुओंकी यदि कमी हो नो दृसरोंको भी उनकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है।
जो मनुष्य भोग और उपभोगके माधनांको कम करके अपनी आवश्यकताओंको घटा लेता हैं, आवश्यकताओंके घट जानेस उस मनुष्यका खर्च भी कम हो जाता है । और खर्च कम हो जानेसे उसकी धनकी आवश्यकता भी कम हो जाती है। तथा धनकी आवश्यकता कम हो जानेसे उसे न्याय और अन्यायका विचार किये बिना धन मामनेकी तृष्णा नहीं सताती । इसीलिये लिखा है
'भोगोपभोगकृशनात् कृशीकृतधनस्पृहः । धनाय कोट्टपालादि क्रियाः क्रूराः करोति कः ॥' मागारधर्मा० ।
'भोग और उपभोगको कम कर देनसे जिसकी धनकी तृष्णा कम हो गई है, ऐसा कौन आदमी धनके लिये पुलिस वगैरहकी निर्दयी नौकरी करेगा।' ___ अतः भोगोपभोगका परिमाण कर लेनेवाला आजीविकाके लिये ऐसा काम नहीं करता है, जिससे दूसरोंको कष्ट पहुँचता हो । उसका खान-पान भी बहुत सात्विक, सादा और शुद्ध होता है । मद्य, माँस और मधु तो वह खाता ही नहीं है, किन्तु भोजन भी ऐसा करता है जो मादक और देरमें हजम हो