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________________ २०४ जैनधर्म बारेमें चिन्तन करना चाहिये । यद्यपि मन वचन और कायको एकाम करना बड़ा कठिन है, किन्तु अभ्याससे सब साध्य है। प्रारम्भमें कुछ कष्ट अनुभव होता है, शरीर निश्चल रहना नहीं चाहता, मन-विद्रोह करता है और मंत्र पाठको जल्दी-जल्दी बोलकर समाप्त कर देना चाहता है, फिर भी इनको रोकना चाहिय । जब ये सध जाते हैं तो मनुष्यको बड़ी आध्यात्मिक शान्ति मिलती है। ५-प्रत्यक अष्टमी और प्रत्यक चतुर्दशीके दिन मन, वचन और कायकी स्थिरताका दृढ़ करनेके लिये चारों प्रकारके आहारको त्यागकर उपवास करना चाहिये । उस दिन न कुछ खाना चाहिये और न कुछ पीना चाहिये । किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ हों वे केवल जल ले सकते हैं । और जो केवल जलपर भी न रह सकते हों, उन्हें केवल एकवार हल्का सात्विक भोजन करना चाहियं । जो व्यक्ति उपवास करना चाहें, उन्हें चाहिये कि वे अष्टमी और चतुर्दशीके पहले दिन दोपहरका भोजन करके उपवासकी प्रतिज्ञा ले लें। और घर-गृहस्थीके काम धामसे अवकाश लेकर एकान्त स्थानमें चले जायें और अपना समय आत्मचिन्तन और स्वाध्यायमें बितावें । सन्ध्याको दैनिक कृत्यसे निबटकर पुनः अपने उसी काममें लग जायें। रात्रिको विश्राम करें और दिनको इसी तरह बितावें । इस तरह अष्टमी और चतुर्दशीका दिन तथा रात बिताकर दूसरे दिन दोपहरको अभ्यागत अतिथियोंको भोजन कराकर एक बार अनासक्त होकर भोजन करें। उपवासस मतलब केवल पेटके ही उपवाससे नहीं है, किन्तु पाँचों इंन्द्रियोंके उपवाससे है । आहार वगैरहका त्याग करके भी यदि मनुप्यका चित्त पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें रमता है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन, सुन्दर कामिनी, सुगन्धित द्रव्य और सुन्दर संगीतकी कल्पनामें मस्त रहता है तो वह उपवास निष्फल है। ६-भोग और उपभोगके साधनोंका कुछ समय या याष.
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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