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________________ चारित्र २०३ उन्हें हिंसा वगैरहका उपदेश नहीं देना चाहिये । जैसे, व्याधको यह नहीं बतलाना चाहिये कि अमुक स्थानपर मृग वगैरह बसते हैं । ठग और चोरको यह नहीं बतलाना चाहिये कि अमुक जगह ठगई और चोरीका अच्छा अवसर है। तथा जहाँ चार जने बैठकर गपशप करते हों वहाँ भी इस तरह की चर्चा नहीं चलाना चाहिये १ । जिन चीजोंसे दूसरोंकी जान ली जा सकती है, ऐसे विष, अस्त्र, शस्त्र आदि हिंसाके साधन दूसरोंको नहीं देना चाहिये २। जिन पुस्तकों या शास्त्रोंके सुनने या पढ़नेसे मन कलुषित हो, जिनके सुनते ही चित्तमें कामवासना जाग्रत हो, दूसरोंको मार डालनेके भाव पैदा हों, घमंड और अहंकारका भाव हृदयमें उत्पन्न हो, ऐसे शास्त्रों और पुस्तकोंको न स्वयं सुनना चाहिये और न दूसरोंको सुनाना चाहिये ३ । अमुकका मरण हो जाय, अमुकको जेलखाना हो जाय, अमुकके घर चोरी हो जाये, अमुककी स्त्री हर ली जाये, अमुककी जमीन जायदाद बिक जाये, इत्यादि विचार मनमें नहीं लाना चाहिये ४ । बिना जरूरतके पृथ्वीका खोदना, पानीका बहाना, आगका जलाना, हवाका करना तथा वनस्पतिका काटना आदि काम नहीं करना चाहिये ५। इन कामोंके करनेसे अपना कुछ लाभ नहीं होता, बल्कि उल्टी हानि ही होती है और दूसरोंको व्यर्थमें कष्ट उठाना पड़ता है। अश्लील चर्चाएँ करना, शरीरसे कुत्सित चेष्टाएँ करना, व्यर्थको बकवाद करना, बिना सोचे समझे ऐसे काम कर डालना जिससे अपना कोई लाभ न हो और दूसरोंको व्यर्थमें कष्ट उठाना पड़े, तथा भोग और उपभोगके साधनोंको आवश्यकतासे अधिक संचय कर लेना, ये सब काम एक सद्गृहस्थको कभी भी नहीं करने चाहिये। ४-प्रातः और सन्ध्याको एकान्त स्थानमें कुछ समयके लिये हिंसा वगैरह समस्त पापोंसे विरत होकर आत्मध्यान करनेका अभ्यास करना चाहिये । उसमें मन वचन और कायको स्थिर करके आत्मा और उसके अन्तिम लाभ मोक्षके
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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