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जनधमं
योग्य सन्तान के होने पर ही अपनी वृद्धावस्थामें उसपर घरबारका भार सौंपकर गृहस्थ आत्मोन्नतिके मार्ग में लग सकता है। ये सब दर्शनिक श्रावकके कर्तव्य हैं ।
२. त्रतिक - जिसका सम्यग्दर्शन और पहले कहे गये आठमूलगुण परिपूर्ण होते हैं तथा जो मायाचारसे या आगामी कालमें विषय सुखके और भी अधिक प्राप्त होनेकी अभिलाषासे व्रतोंका पालन नहीं करता, बल्कि राग और द्वेषपर विजय पाकर साम्यभाव प्राप्त करनेकी इच्छासे व्रतोंका पालन करता है उसे व्रतिक श्रावक कहते हैं । त्रतिक श्रावक पहले बतलाये पाँच अणुव्रतोंका निर्दोष पालन करता है और उन्हें बढ़ानेके लिये नीचे लिखे सात शीलोंका भी पालन करता हैं । वे सात शील इस प्रकार हैं - १ - दिग्व्रत, २ - देशव्रत, ३ - अनर्थदण्डविरति, ४ - सामायिक, ५ - प्रोषधोपवास, ६- परिभोग उपभोग परिमाण और ७ - अतिथिसंविभाग ।
१ - उसे जीवन भरके लिये अपने आने जाने और लेन-देन करनेके क्षेत्रकी मर्यादा कर लेनी चाहिये कि इस स्थान तक ही मैं अपना सम्बन्ध रखूँगा, उसके बाहरसे खूब लाभ होनेपर भी कोई व्यापार नहीं करूँगा । ऐसा नियम कर लेनेसे मनुष्यकी तृष्णाका क्षेत्र सीमित हो जाता है और विदेशी व्यापारका नियमन होनेसे देशकी संपत्तिका विदेश जाना भी रुक जाता है ।
२ - जीवन भरके लिये ली हुई मर्यादाके भीतर भी अपनी आवश्यकता और यातायातको दृष्टिमें रखकर कुछ समय के लिये भी उक्त क्षेत्रकी मर्यादा लेते रहना चाहिये, कि मैं इतने समय तक अमुक अमुक स्थान तक ही अपना आना जाना रखूँगा व लेन-देन अदि करूँगा ।
३ – बिना प्रयोजनके दूसरे प्राणियोंको पीड़ा देनेवाला कोई भी काम नहीं करना चाहिये। ऐसे काम संक्षेपमें पाँच भागों में बाँटे गये हैं-पापोपदेश, हिंसादान, दुश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या । जो लोग हिंसा वगैरहसे आजीविका करते हों