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________________ चारित्र २०१ लिये न्याय तरीकोंसे आजीविका करता है, उस श्रावकको दर्शनिक कहते हैं । दर्शनिक श्रावक मद्य, मांस वगैरहका न केवल सेवन नहीं करता, किन्तु न उनका व्यापार वगैरह स्वयं करता है न दूसरोंसे कराता है और न ऐसे कामोंमें किसीको अपनी सम्मति ही देता है। जो स्त्री पुरुष शराब वगैरह पीते हैं उनके साथ खान पान आदि व्यवहार भी नहीं रखता, क्योंकि ऐसा करनेसे मद्य वगैरहके सेवनका प्रसंग उपस्थित हो सकता है। चमड़ेके पात्रमें रखा हुआ घी, तेल या पानी काममें नहीं लाता । जिस भोजनपर फुई आ जाती है, या स्वाद बिगड़ जाता है उसे नहीं खाना । जिम फन या साग सब्जोसे वह परिचित नहीं है उसे नहीं खाना । सूर्यादय होनेके एक मुहर्न बादसे सूर्यास्त होनेके एक मुहूर्न पहले तक हो अपना खान-पान करता है । पानीको शुद्ध माफ वस्त्रसे छानकर ही काममें लाता है। जुआ नहीं खेलता और न सट्टेबाजी ही करता है । वेश्याका सेवन तो दूर रहा, उससे किसी भी तरहका सम्बन्ध नहीं रखता, न वेश्यावाटोंकी सैर ही करता है। मुकदमा वगैरह लड़ाकर किसीका द्रव्य या जायदाद हड़प करनेकी कोशिश नहीं करता। शिकार खेलना तो दूर रहा, चित्र वगैरहमें अंकिन जीव जन्तुओंका भी छेदन भेदन नहीं करता। परखीसे रमण करना तो दूर रहा, कन्याके माता पिताको आज्ञाके बिना किसी कन्यासे विवाह भी नहीं करता। जिस कामको बुरा समझकर स्वयं छोड़ देता है, दूसरोंसे भी उसे नहीं कराता । संकल्पी हिंसाका त्याग कर देता है । और उतना ही आरम्भ-कृषि वगैरह करता है जितना स्वयं कर सकता है। क्योंकि दृमरोंस करानेसे व्यवहारमें वह अहिंसकपना नहीं रह सकता, जिसका उसने व्रत लिया है। अपनी पत्नीसे भी उतना ही भोग करना है, जितना करना शरीर और मनके संतापकी शान्तिके लिये आवश्यक है, तथा उसका उद्देश्य केवल सन्तानोत्पादन ही होता है। सन्तान होनेपर उसे योग्य और सदाचारी बनानेका पूरा प्रयत्न करता है, क्योंकि
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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