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जैनधर्म
जाते हैं । और जो उन्हें सुखाकर खाता है, वह उनमें अति आसक्ति होनेके कारण अपनी आत्माका घात करता है ।'
अतः प्राथमिक श्रावकको इस तरह के फल नहीं खाना चाहिये । तथा रातको भोजन नहीं करना चाहिये और सदा पानीको छानकर काम में लाना चाहिये । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के छोड़नेका यथाशक्ति अभ्यास करना चाहिये । तथा जुआ, वेश्या, शिकार, परस्त्री वगैरह व्यसनोंसे भी बचते रहनेका ध्यान रखना चाहिये । प्रतिदिन जिन मन्दिरमें जाकर अर्हन्तदेवकी पूजा करनी चाहिये, गुरुओं की सेवा करनी चाहिये, सुपात्रोंको दान देना चाहिये । तथा अन्य भी जो धार्मिक कृत्य हैं, तथा लोक में ख्याति करानेवाले कार्य हैं, उन्हें करते रहना चाहिये । जैसे, दान और अनाथोंके लिये भोजनशाला और औषधालयोंकी व्यवस्था करना चाहिये, अपने पुत्र और पुत्रीको योग्य वनाकर सुपात्र के साथ उनका सम्बन्ध करना चाहिये । आदि,
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नैष्ठिक श्रावक
नैष्ठिक श्रावकके ११ दर्जे हैं। ये दर्जे इस क्रमसे रखे गये हैं कि उनपर धीरे-धरे चढ़ करके कोई भी श्रावक अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता हुआ अपने जीवनके अन्तिम लक्ष तक पहुँच सकता हैं । इन ११ दर्जोंका, जिन्हें जैनसिद्धान्तमें ११ प्रतिमाएँ कहते हैं, संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैं
१. दर्शनिक - पाक्षिक श्रावकका जो आचार पहले बतलाया हैं, उसके पालन करनेसे जिसका श्रद्धान दृढ़ और विशुद्ध हो गया है, संसार के कारण भोगोंसे जो विरक्त हो चला हैं अर्थात् इष्ट विषयोंका सेवन करते हुए भी उनमें जिसकी आसक्ति नहीं है, जिसका चित्त सदा पाँच परमेष्ठियोंके चरणोंमें लीन रहता है, जो आठ मूल गुणोंमें कोई भी दोष नहीं लगाता और आगेके गुणोंको प्राप्त करनेके लिये उत्सुक रहता है तथा भरण पोषणके