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चारित्र
१९९ है उसे पाक्षिक श्रावक कहते हैं। जो निरतिचार श्रावक धर्मका पालन करता है उसे नैष्ठिक श्रावक कहते हैं। और जो देशचारित्रको पूर्ण करके अपनी आत्माकी साधनामें लीन हो जाता है, • उसे साधक श्रावक कहते हैं। अर्थात् प्रारम्भिक दशाका नाम पाक्षिक है, मध्यदशाका नाम नैष्ठिक है और पूर्णदशाका नाम साधक है । इस तरह अवस्था भेदसे श्रावकके तीन भेद किये गये हैं । इनका विशेष परिचय नीचे दिया जाता है ।
पाक्षिक श्रावक पाक्षिक श्रावक पहले कहे गये आठ मृल गुणोंका पालन करता है। उत्तरकालमें आठ मूल गुणोंमें पाँच अणुव्रतोंके स्थानमें पाँच क्षीरिफलोंको लिया गया है। जिस वृक्षमेंसे दूध निकलता है उसे भीरिवृक्ष व उदुम्बर कहते हैं । उदुम्बरका फलोंमें जन्तु पाये जाते हैं। इसीसे अमरकोषमें उदुम्बर एक नाम जन्तुफल भी है और एक नाम 'हेमदुग्धक' है, क्योंकि उसमेंसे निकलनेवाले दूधका रंग पीलेपनको लिये हुए होता है । पीपल, वट, पिलखन, गूलर और काक उदुम्बरी इन पाँच प्रकारके वृक्षोंके फलोंको नहीं खाना चाहिये, क्योंकि इनमें साक्षात् जन्तु पाये जाते हैं। पेड़से गिरते ही गूलरके फूट जानेपर उसमेंसे उड़ते हुए जन्तुओंको हमने स्वयं देखा है । अतः ऐसे फलोंको नहीं खाना चाहिये तथा मद्य, माँस और मधुसे बचना चाहिये। प्रत्येक पाक्षिकको इतना तो कमसे कम करना ही चाहिये। लिखा है
'पिप्पलोदुम्बरप्लक्षवटफल्गुफलान्यदन् । हन्त्याणि प्रसान् गुष्काण्यपि स्वं रागयोगतः ॥१३॥-सागारधर्मा।
'पीपल, गूलर, पिलखन, वट और काक उदुम्बरीके हरे फलोंको जो खाता है वह त्रस अर्थात् चलते फिरते हुए जन्तुओंका घात करता है; क्योंकि उन फलोंके अन्दर ऐसे जन्तु पाये