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जैनधर्म में तड़पनेवाले असंख्य प्राणियोंका विचार करके धनकी तृष्णासे विरत ही रहना चाहिये; क्योंकि न्यायकी कमाईसे मनुष्य जीवन निर्वाह कर सकता है किन्तु धनका अटूट भण्डार एकत्र नहीं कर सकता। अटूट भण्डार तो पापकी कमाईसे ही भरता है, जैसा कि उन्हीं गुणभद्राचार्यने कहा है
शुद्धर्धनविवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिंधवः ॥४५॥" आत्मानु० ।
'सज्जनोंकी भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धनसे नहीं बढ़ती। क्या कभी नदियोंको स्वच्छ जलसे परिपूर्ण देखा गया है।' - नदियाँ जब भी भरती हैं तो वर्षाके गंदे पानीसे ही भरती हैं, उसी तरह धनकी वृद्धि भी न्यायकी कमाईसे नहीं होती। अतः आवश्यक धनका परिमाण करके मनुष्यको अन्यायकी कमाईसे बचना चाहिये। इससे वह स्वयं सुखी रहेगा और दूसरे लोग भी उसके दुःखके कारण नहीं बनगे। - इस व्रतके भी पाँच दोष हैं, जिनसे बचना चाहिये । १-लोभमें आकर मनुष्य और पशुओंसे शक्तिसे अधिक काम लेना। २-धान्य वगैरह आगे खूब मुनाफा देगा इस लोभसे धान्यादिकका अधिक संग्रह करना, जैसा युद्धकालमें किया गया था। ३-इस तरहके धान्य-संग्रहको थोड़े लाभसे बेंच देनेपर या धान्यका संग्रह ही न करनेपर या दूसरोंको धान्य-संग्रहसे अधिक लोभ होता हुआ देखकर खेदखिन्न होना। ४-पर्याप्त लाभ उठानेपर भी उससे अधिक लाभकी इच्छा करना। ५-और अधिक लाभ होता हुआ देखकर धनादिककी की हुई मर्यादाको बढ़ा लेना।
श्रावकके भेद श्रावकके तीन भेद हैं-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । जो एक देशसे हिंसाका त्याग करके श्रावक धर्मको स्वीकार करता