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चारित्र
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समान ही इन आम्तर परिग्रहों को भी घटाना चाहिये । परिग्रहको घटानेका एक ही उपाय है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओंको ध्यान में रखकर रुपया पैसा जमीन जायदाद वगैरह सभी
ओंको एक मर्यादा नियत कर ले कि इससे ज्यादा मैं अपने पास नहीं रखूँगा । ऐसा करनेसे उसके पास अनावश्यक द्रव्यका संग्रह भी नहीं हो सकेगा; और आवश्यकता के अनुसार द्रव्य उसके पास होनेसे स्वयं उसे भी कोई कष्ट न होगा । साथ ही साथ बहुत मी व्यर्थ की हाय हायसे भी बच जायेगा और अपना जीवन सुख और सन्तोषके साथ व्यतीत कर सकेगा । आज दुनिया में जो आर्थिक विषमता फैली हुई है उसका कारण मनुष्यकी अनावश्यक संचयवृत्ति ही है। यदि सभी मनुष्य अपनी-अपनी आवश्यकताके अनुसार ही वस्तुओंका संचय करें और अनावश्यक संग्रहको समाजके उन दूसरे व्यक्तियोंको सौंप दें जिनको उसकी आवश्यकता है तो आज दुनियामें जितनी अशान्ति मची हुई है उतनी न रहे और सम्पत्तिके बँटबारेका जो प्रश्न आज दुनियाके सामने उपस्थित है, वह बिना किसी कानूनके स्वयं ही बहुत कुछ अंशोंमें हल हो जाये ।
दुनियाकी अनियंत्रित इच्छाको लक्ष्य करके जैनाचार्य श्री गुणभद्र स्वामीने संसारके प्राणियोंको सम्बोधन करते हुए कहा है
" आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् - 1
कस्य कि कियदायाति वृथा वो विपयैपिता ॥ ३६ ॥ " - आत्मानु० |
'प्रत्येक प्राणीमें आशाका इतना बड़ा गढ़ा है. जिसमें यह विश्व अणुके बराबर है। ऐसी स्थितिमें यदि इस विश्वका बैटवारा किया जाये तो किसके हिस्सेमें कितना आयेगा ? अतः संसारके तृष्णालु प्राणियों ! तुम्हारी विषयोंकी चाह व्यर्थ ही है।'
अतः प्रत्येक श्रावकको विश्वकी सम्पत्ति और उसकी चाह