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जैनधर्म
का जो ममत्व रहता है, उस ममत्व परिणामको परिग्रह कहते हैं। और ममत्वको घटाकर उन वस्तुओंके घटानेको परिग्रह परिमाणव्रत कहते हैं । लोकमें तो रुपया पैसा जमीन जायदाद ही परिग्रह कहलाता है । किन्तु वास्तव में तो मनुष्यका ममत्वभाव परिग्रह है । इन बाहिरी चीजोंको तो उस ममत्वका कारण होनेसे परिग्रह कहा जाता है। यदि बाहिरी चीजोंको ही परिग्रह माना जायेगा तो जिन असंख्य लोगोंके पास कुछ भी नहीं, किन्तु उनके चित्तमें बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ हैं वे सब अपरिग्रही कहलायेंगे । किन्तु बात ऐसी नहीं है। सच्चा अपरिग्रही वही है जिसके पास कुछ भी नहीं है और न जिसके चित्तमें किसी चीजकी चाह ही है; क्योंकि चाह होनेपर मनुष्य परिग्रहका संचय किये बिना रह सकता। और संचयको वृत्ति आनंदर न्याय अन्याय और युक्त अयुक्तका विचार नहीं रहता । फिर तो मनुष्य धनका कोड़ा बन जाता है, वह धनका स्वामी न रहकर उसका दास हो जाता है । द्रव्य दान करके भी उससे उसका ममत्व नहीं छूटता । उसे वह अपने पास ही रखना चाहता है । उसे भय रहता है कि उसके दिये हुए द्रव्यको कोई हड़प न जाये । वह चाहता हैं कि उससे उसकी खूब कीर्ति हो, लोग उसका गुणगान करें, उसके दोषोंपर परदा डाल दिया जाये, अखबारोंमें उसकी खूब बड़ाई छापी जाये। यह सव ममत्वभावका ही फल हैं। उससे छुटकारा मिले बिना परिग्रहसे छुटकारा नहीं मिल सकता। देखा जाता है कि जब तक हम किसी वस्तुको अपनी नहीं समझते तबतक उसके भले बुरेसे न हमें प्रसन्नता होती है और न रंज । किन्तु ज्योंही किसी वस्तुमें 'यह हमारी है' ऐसी भावना हो जाती हैं त्यांही मनुष्य उसकी चिन्तामें पड़ जाता है। इसलिए ममत्व ही परिग्रह है । उसको कम किये बिना परिग्रहरूपी पापसे छुटकारा नहीं मिल सकता । जैसे रुपया वगैरह बाह्य परिग्रह हैं वैसे ही काम, मद, मोह आदि भाव अभ्यन्तर परिग्रह हैं । बाह्य परिग्रहके
क्रोध,