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________________ ३०० जैनधर्म को दूर करने के लिए मोरपंखकी एक पीछी रखते हैं और मलमूत्र वगैरह की बाधाके लिये एक कमण्डलु रखते हैं, जिसमें प्रासुक जल रहता है। वे दिन में एकबार खड़े होकर अपने हाथमें ही भोजन कर लेते हैं इसलिए उन्हें भोजनके लिये पात्रकी आवश्यकता नहीं होती। दिगम्बर साधुका यह स्वरूप प्रारम्भसे प्रायः ऐसा ही चला आता है, उसमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा है। किन्तु आचारग्रन्थोंमें जो कहा है कि मुनियोंको वस्तीसे बाहर उद्यानों या शून्य गृहोंमें रहना चहिये, इसमें अवश्य शिथिलता आयो । मुनियोंने वनोंको छोड़कर धीरे-धीरे नगरों में रहना प्रारम्भ कर दिया। तभी तो ईसाकी नौंवों शतीके जैनाचार्य गुणभद्रने मुनियोंकी इस प्रवृत्तिपर खेद प्रकट करते हुए लिखा है कि 'जैसे रात्रिमें इधर-उधरसे भयभीत मृग ग्रामके समीप में आ बसते हैं वैसे ही इस कलिकालमें तपस्वीजन भी वनोंको छोड़कर ग्रामोंमें आ बसते हैं यह बड़ी दुःखद बात हैं।' धीरे धीरे यह शिथिलाचार बढ़ता रहा और परिस्थितियों तथा मनुष्यकी स्वभाविक दुर्बलताओंसे उसे बराबर प्रोत्साहन मिला । तभी तो शिवकोटि आचार्यके नामसे प्रसिद्ध की गयी रत्नमालामें कलिकालमें मुनियोंको वनवास छोड़कर जिन मन्दिरोंमें रहनेका स्पष्ट विधान किया गया है। इसे ही चैत्यवास कहते हैं। इसीसे श्वेताम्बरोंमें चैत्यवासी सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई थी। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदायमें इस नामके सम्प्रदायका तो कोई उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी यह निश्चित है कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी वह था और उसीका विकसित १. 'इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्यां यथा मृगाः । वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलो कष्टं तपस्विनः ॥२९७॥' -आत्मानु० । २. 'कलो काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमः । स्थीयते च जिनागारे प्रामादिषु विशेषतः ॥२१॥
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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