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________________ सामाजिक रूप ३०१ एकरूप भट्टारकपद है जिसके विरोधमें तेरह पन्थका उदय हुआ। दिगम्बर सम्प्रदायमें संघभेद पिछले साहित्यमें दिगम्बर सम्प्रदायके लिए 'मूलसंघ' शब्दका व्यवहार बहुतायतसे पाया जाता है। दिगम्बर सम्प्रदाय या मूलसंघमें आगे चलकर अनेक भेद-प्रभेद हो गये । आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें लिखा है कि पुण्ड्रवर्धनपुरमें अर्हद्बलि नामके आचार्य हो गये हैं। वे पाँच वर्षके अन्तमें सौ योजनमें वसनेवाले मुनियोंको एकत्र करके युगप्रतिक्रमण किया करते थे। एक बार युगके अन्तमें इसी प्रकार युगप्रतिक्रमणके लिए आये हुए मुनियोंसे उन्होंने पूछा कि क्या सब मुनि आ गये ? तब उन्होंने उत्तर दिया-'हाँ, भगवन् ! हम सब अपने अपने संगसहित आ गये ।' यह सुनकर आचार्यने विचार किया कि अब यह जैनधर्म गणपक्षपातके सहारे ठहर सकेगा, उदासीन भावसे नहीं । तब उन्होंने संघ या गण स्थापित किये। जो मुनि गुहाओंसे आये थे उनमेंसे कुछको 'नन्दि' और कुछको 'वीर' नाम दिया, जो अशोक वाटिकासे आये थे उनमेंसे कुछको 'अपराजित' और कुछको 'देव' नाम दिया, जो मुनि पञ्चस्तूप्य निवाससे आये थे उनमेंसे कुछको 'सेन' और कुछको 'भद्र' नाम दिया, जो मुनि, शाल्मलि महावृक्षके मूलसे आये थे, उनमेंसे कुछको 'गुणधर' और कुछको 'गुप्त' नाम दिया, जो खण्डकेसर वृक्षोंके मूलसे आये थे, उनमेंसे कुछको 'सिंह' और कुछको 'चन्द्र' नाम दिया। १. आचार्य इन्द्रनन्दिने इम विषयमें 'उक्तं च' करके एक श्लोक उद्धृत किया है जो इस प्रकार है "आयातो नन्दिवीरो प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटाद् देवश्चान्योऽपराजित इति यतिपो सेनभद्राह्वयो च ।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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