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इतिहास शरीर कष्टदायक है, भोगने योग्य नहीं है । अतः दिव्य तप करो, जिससे अनन्त सुखकी प्राप्ति होती है।
(२) जो कोई मेरेसे प्रीति करता है, विषयी जनोंसे, स्त्रीसे, पुत्रसे और मित्रसे प्रीति नहीं करता, तथा लोकमें प्रयोजनमात्र आसक्ति करता है वह समदर्शी प्रशान्त और साधु है। _(३) जो इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये परिश्रम करता है उसे हम अच्छा नहीं मानते; क्योंकियह शरीर भी आत्माको क्लेशदायी है।
(४) जब तक साधू आत्मतत्त्वको नहीं जानता तब तक वह अज्ञानी है। जब तक यह जीव कर्मकाण्ड करता रहता है तब तक सब कोका शरीर और मन द्वारा आत्मासे बन्ध होता रहता है।
(५) गुणोंके अनुसार चेष्टा न होनेसे विद्वान् प्रमादी हो, अज्ञानी बन कर, मैथुनसुखप्रधान घरमें वसकर अनेक संतापोंको प्राप्त होता है।
(६) पुरुषका स्त्रीके प्रति जो कामभाव है यही हृदयकी प्रन्थि है । इसीसे जीवको घर, खेत, पुत्र, कुटुम्ब और धनसे मोह होता है।
(७) जब हृदयकी ग्रन्थिको बनाये रखनेवाले मनका बन्धन शिथिल हो जाता है तब यह जीव संसारसे छूटता है और मुक्त होकर परमलोकको प्राप्त होता है।
(८) जब सार-असारका भेद करानेवाली व अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाली मेरी भक्ति करता है और तृष्णा, सुख दुःखका त्याग कर तत्वको जाननेकी इच्छा करता है, तथा तपके द्वरा सब प्रकारकी चेष्टाओं की निवृत्ति करता है तब मुक्त होता है।
(९) जीवोंको जो विषयोंकी चाह है यह चाह ही अन्धकूपके समान नरकमें जीवको पटकती है।
(१०) अत्यन्त कामनावाला तथा नष्ट दृष्टिवाला यह जगत अपने कल्याणके हेतुओंको नहीं जानता है।