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जैन साहित्य
२५३ अपभ्रंश भाषामें तो इन पुराण और चरितग्रन्थोंका संस्कृतकी अपेक्षा भी बाहुल्य है। अपभ्रंश भाषामें जैनकवियोंने खूब रचनाएँ की हैं । इस भाषाका साहित्य जैन भण्डारोंमें भरा पड़ा है। अपभ्रंश बहुत समयतक यहाँकी लोक भाषा रही है और इसका साहित्य भी बहुत ही लोकप्रिय रहा है। पिछले कुछ दशकोंसे इस भाषाकी ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित हुआ है, अब तो वर्तमान प्रान्तीय भाषाओंकी जननी होनेके कारण भाषाशास्त्रियों और विभिन्न भाषाओंका इतिहास लिखनेवालोंके लिए इसके साहित्यका अध्ययन आवश्यक हो गया है। पुष्पदन्त इस भाषाके महान कवि थे। इनका 'त्रिषष्टि महापुरुष गुणालंकार' एक महान ग्रन्थ है। पुष्पदन्तने महाकवि स्वयंभुका स्मरण किया है। स्वयंभु, पुष्पदन्त, कनकामर, रइधु आदि अनेक कवियोंने अपभ्रंश भाषाके साहित्यको समृद्ध बनाने में कुछ उठा नहीं रखा।
कथा साहित्य भी विशाल है । आचार्य हरिषेणका कथाकोश बहुत प्राचीन (ई० सं० ९३२) है। आराधना कथाकोश, पुण्याश्रव कथाकोश आदि अन्य भी बहुतसे कथाकोश हैं जिनमें कथाओंके द्वारा धर्माचरणका शुभ फल और अधर्माचरणका अशुभ फल दिखलाया गया है । चम्पू काव्य भी जैन-साहित्यमें बहुत हैं। सोमदेवका यशस्तिलक चम्पू , हरिचन्द्रका जीवन्धर चम्पू और अहहासका पुरुदेवचम्पू उत्कृष्ट चम्पू काव्य हैं । गद्यग्रन्थों में वादीभसिंहकी गद्यचिन्तामणि उल्लेखनीय है। नाटकोंमें हस्तिमल्लके विक्रान्तकौरव, मैथिलकल्याण, अंजना पवनंजय आदि दर्शनीय हैं । स्तोत्र साहित्य भी कम नहीं है, महाकवि धनंजयका विषापहार, कुमुदचन्द्रका कल्याणमन्दिर आदि स्तोत्र साहित्यकी दृष्टिसे भी उत्कृष्ट हैं। स्वामी समन्तभद्रके स्वयंभू स्तोत्रमें तो जैनदर्शनके उच्चकोटिके सिद्धान्तोंको कूटकूट कर भर दिया गया है । वह एक दार्शनिक स्तवन है। नीति अन्थोंकी भी कमी नहीं है । वादीमसिंहका क्षत्रचूड़ामणि काव्य