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जैनधर्म अकलंकदेवको जैनन्यायका सर्जक कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं हैं । इन्होंने टीका ग्रन्थों के सिवा सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह आदि अनेक प्रकरणग्रन्थ रचे हैं जो बहुत ही प्रौढ़ और गहन हैं। इन प्रकरणोंपर आचार्य अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र नामके प्रकाण्ड जैन नैयायिकोंने विस्तृत व्याख्या ग्रन्थ रचे हैं जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। माणिक्यनन्दि आचार्यका परीक्षामुख नामक सूत्रग्रन्थ जैनन्यायके अभ्यासियोंके लिए बड़े ही कामका है। इसपर आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड नामका महान् व्याख्या ग्रन्थ रचा है। उसे अति संक्षिप्त करके अनन्तवीर्य नामके आचार्यने प्रमेयरत्नमाला नामकी टीका बनायी है । पात्रकेसरीका त्रिलक्षणकदर्थन, श्रीदत्तका जल्पनिर्णय आदि कुछ ऐसे भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं जो आज अनुपलब्ध हैं, केवल अन्य ग्रन्थोंमें उनका उल्लेख मिलता है।
पुराण साहित्यमें हरिवंशपुराण, महापुराण, पद्मचरित आदि ग्रन्थोंका नाम उल्लेखनीय है। जैन पुराणोंका मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ शलाका पुरुषोंके चरित्र हैं । इनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रतिवासुदेव हैं। जिनमें पुराण पुरुषोंका पुण्यचरित वर्णन किया गया हो उसे पुराण कहते हैं । हरिवंशपुराणमें कौरव और पाण्डवोंका वर्णन है और पद्मचरितमें श्रीरामचन्द्रका वर्णन है। इस तरहसे ये दोनों ग्रन्थ क्रमशः जैन महाभारत और जैन रामायण कहे जा सकते हैं । इनके सिवा चरितग्रन्थोंका तो जैन साहित्यमें भण्डार भरा है । सकलकीर्ति आदि आचार्योंने अनेक चरित प्रन्थ रचे हैं । आचार्य जटासिंह नन्दिका वरांगचरित एक सुन्दर पौराणिक काव्य है । काव्यसाहित्य भी कम नहीं हैं। वीरनन्दिका चन्द्रप्रभचरित, हरिचन्द्रका धर्मशर्माभ्युदय, धनंजयका द्विसन्धान और वाग्भट्टका नेमिनिर्वाण काव्य उच्चकोटिके संस्कृत महाकाव्य हैं।