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जैन साहित्य
२५१ बड़ी हृदयहारिणी है । सतरहवीं शताब्दीके कविवर बनारसीदासने इन कलशोंका हिन्दीमें अत्यन्त रोचक पद्यानुवाद किया है।
प्रवचनसार और पश्चास्तिकायमें जैनाभिमत तत्त्वोंका युक्तिपूर्ण विवेचन है। कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने बहुतसे प्राभृतोंकी रचना की थी. किन्तु उनमेंसे आज केवल आठ प्राभृत उपलब्ध हैं । नमिल भापाके तिम्कुरुल काव्यक रचयिता भी इन्हींको कहा जाता है। इनके शिष्य उमास्वामी या उमास्वाति नामके जैनाचार्य थे, जन्होंने सर्वप्रथम जैनवाङ्मयको संस्कृतसूत्रोंमें निबद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामके सूत्रग्रन्थकी रचना की। इस ग्रन्थके दस अध्यायोंमें जीव आदि सात तत्त्वोंका सुन्दर विवेचन किया गया है। अपने अपने धर्मो में गीता, कुरान और बाइबिलको जो स्थान प्राप्त है वही स्थान जैनधर्ममें इस ग्रन्थको प्राप्त है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय इसे मानते हैं। दोनों ही परम्पराओंके आचार्योने उसके ऊपर अनेक टीकाएँ रची हैं, जिनमें अकलंकदेवका तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दिका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक उल्लेखनीय हैं। दोनों ही वार्तिकग्रन्थ संस्कृतमें बड़ी ही प्रौढ़ शैलीमें रचे गये हैं और जैनदर्शनके अपूर्व प्रन्थ हैं।
दर्शन और न्यायशास्त्र में स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन की रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसा नामका एक प्रकरण ग्रन्थ रचा है, जिसमें म्याद्वादका सुन्दर विवेचन करते हुए इतर दर्शनोंकी विचारपूर्ण आलोचना की गया है । इस आप्नमीमांसापर स्वामी अकलंकदेवने 'अष्टशनी' नामक प्रकरण रचा है और अष्टशनी पर म्वामी विद्यानन्दने अष्टसहस्री नामकी टीका रची है। यह अष्टमहस्री इतनी गहन है कि इसको समझनेमें कष्टसहस्रीका अनुभव होता है। इन्हीं विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा और प्रमाणपरीक्षा भी भाषा, विषय और विवेचनकी रष्टिसे द्रष्टव्य हैं।