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जैनधर्म प्रशस्तिमें लिखा है
"प्रायःप्राकृतभारत्या क्वचित् संस्कृतमिश्रया । मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रन्थविस्तरः ॥" पट्खण्डागमका ही अन्तिम खण्ड महाबंध है जिसकी रचना भूनबलि आचार्यने की थी। यह भी प्राकृतमें है और इसका प्रमाण ४१ हजार है। इन सभी ग्रन्थोंमें जैन कर्मसिद्धान्तका बहुत मूक्ष्म और गहन वर्णन है। ___ चिरकालसे ये तीनों महान ग्रन्थ मूडविद्री (दक्षिण कनारा) के जैन भण्डारमें ताड़पत्रपर सुरक्षित थे। वहाँके भट्टारक महो. दय तथा पंचोंकी उदात्त भावनाके फलस्वरूप अब इन तीनोंका प्रकाशन हिन्दी टीकाके साथ हो रहा है।
ईसाकी दसवीं शताब्दीमें दक्षिणमें नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्ती नामके एक जैनाचार्य हुए। वे उक्त तीनों आगम ग्रन्थोंके महान् विद्वान थे। उन्होंने उनसे संकलन करके गोमट्टसार तथा लब्धिसार क्षपणासार नामक दो संग्रह ग्रन्थ रचे, जो प्राकृत गाथाबद्ध महान ग्रन्थ हैं। उनमें भी जीव, कर्म और कोके क्षपण यानी विनाशका सुन्दर 'किन्तु गहन वर्णन है। दोनों प्रन्थोंपर संस्कृत टीकाएँ भी उपलब्ध हैं और जयपुरके स्व० पं० टोडरमलजीकी जयपुरी भाषामें रची हुई भाषा-टीका भी उपलब्ध है । इन टीकाओंके साथ यह महान् ग्रन्थ कई खण्डोंमें छपकर प्रकाशित हो चुका है।
ईसाकी प्रथम शताब्दीमें कुन्दकुन्द नामके एक महान् आचार्य हो गये हैं। इनके तीन ग्रन्थ समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय अति प्रसिद्ध हैं जो कुन्दकुन्दत्रयोंके नामसे भी ख्यात हैं। तीनों ग्रन्थ प्राकृतमें हैं। समयसारमें विविध दृष्टियोंसे आत्मतत्त्वका सुन्दर विवेचन है, जैन अध्यात्मका यह अपूर्व ग्रन्थ है । नवीं शतीके अध्यात्म प्रेमी आचार्य अमृतचन्द्र सूरीने इस ग्रन्थपर संस्कृत पद्योंमें कलशकी रचना की है जो