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जैन साहित्य
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पश्चात् ग्यारह अंग और दस पूर्वोके ज्ञाता हुए। फिर पाँच आचार्य ग्यारह अंगके ज्ञाता हुए। पूर्वोका ज्ञान एक तरहसे नष्ट ही हो गया और छुट-पुट ज्ञान बाकी रह गया । फिर चार आचार्य केवल प्रथम आचारांगके ही ज्ञाता हुए और अंग ज्ञान भी नष्ट भ्रष्ट हो गया । इस तरह कालक्रमसे विच्छिन्न होतेहोते वीर निर्वाणसे ६८३ बर्ष बीतने पर जब अंगों और पूर्वीके वचे खुचे ज्ञानके भी लुप्त होनेका प्रसंग उपस्थित हुआ तब गिरिनार पर्वतपर स्थित आचार्य धरसेनने भूतबलि और पुष्पदन्त नामके दो सर्वोत्तम साधुओंको अपना शिष्य बनाकर उन्हें श्रुताभ्यास कराया । इन दोनोंने श्रुतका अभ्यास करके षट्खण्डागम नामके सूत्र ग्रन्थकी रचना प्राकृत भाषामें की । इसी समयके लगभग गुणधर नामके आचार्य हुए । उन्होंने २३३ गाथाओंमें कसायपाहुड या कषायप्राभृत ग्रन्थ की रचना की । यह कषायप्राभृत आचार्य परम्परासे आर्यमंञ्ज और नागहस्ति नामके आचार्योंको प्राप्त हुआ। उनसे सीखकर यतिवृषभ नामक आचार्यने उनपर वृत्तिसूत्र रचे, जो प्राकृतमें हैं और ६००० श्लोक प्रमाण हैं । इन दोनों महान ग्रन्थोंपर अनेक आचार्योंने अनेक टीकाएँ रचीं जो आज उपलब्ध नहीं हैं । इनके अन्तिम टीकाकार वीरसेनाचार्य हुए। ये बड़े समर्थ विद्वान् थे । इन्होंने पट्खण्डागमपर अपनी सप्रसिद्ध टीका धवला शक सं० ७३८ में पूरी की। यह टीका ७२ हजार श्लोक प्रमाण है | दूसरे महान ग्रन्थ कसायपाहुडपर भी इन्होंने टीका लिखी । किन्तु वे उसे बीस हजार लोक प्रमाण लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये । तब उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्यने ४० हजार प्रमाण और लिखकर शक सं० ७५९ में उसे पूरा किया। इस टीकाका नाम जयधवला है और वह ६० हजार श्लोक प्रमाण है । इन दोनों टीकाओंकी रचना संस्कृत और प्राकृतके सम्मिश्रणसे को गयी है। बहुभाग प्राकृतमें है । बीच बीच में संस्कृत भी आ जाती है, जैसा कि टीकाकारने उसकी