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६. सामाजिक रूप १. जैनसंघ
मुनि आर्यिका और श्रावक श्राविका, इनके समुदायको जैनसंघ कहते हैं। मुनि और आर्यिका गृहत्यागी वर्ग है और श्रावक श्राविका गृही वर्ग है। जैनसंघमें ये दोनों वर्ग बराबर रहते हैं। जब ये वर्ग नहीं रहेंगे तो जैनसंघ भी नहीं रहेगा, और जब जैनसंघ नहीं रहेगा तब जैनधर्म भी न रहेगा ।
यद्यपि ये दोनों वर्ग जुदे-जुदे हैं, फिर भी परस्परमें इन दोनोंका ऐसा गठबन्धन बनाये रखनेका प्रयत्न किया गया है। कि दोनों एक दूसरेसे जुड़े नहीं हो सकते और दोनोंका परस्परमें एक दूसरेपर नियंत्रण या प्रभाव जैसा कुछ बना रहता है । हिन्दूधर्मके साधुसन्तोंपर जैसे उनके गृहस्थोंका कुछ भी अंकुश नहीं रहता, वैसी बात जैनसंघमें नहीं है। यहाँ शीलभ्रष्ट और कदाचारी साधुओंपर बराबर निगाह रखी जाती है और किसीकी स्वच्छन्दता अधिक दिनों तक नहीं चल पाती । आज तो संघव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी है और साधुओंमें भी नियमनका अभाव हो गया है, किन्तु पहले यह बात न थी । पहले आचार्यको स्वीकृति और अनुज्ञाके बिना कोई साधु अकेला बिहार नहीं कर सकता था । और अकेले विहार करनेकी आज्ञा उसे ही दी जाती थी जिसे चिरकालके सहवाससे परख लिया जाता था। मुनि दीक्षा भी हरेकको नहीं दी जाती थी। पहले उसे संघ में रखकर परखा जाता था और यह जाननेका प्रयत्न किया जाता था कि वह किसी गार्हस्थिक, राजकीय या अन्य किसी कारणसे घर छोड़कर तो नहीं भागा है । यदि उसके चित्तमें वस्तुतः वैराग्यभावना प्रबल होती थी तो उसे सर्वसंघके समक्ष जिनदीक्षा दी जाती थी। साधुसंघमें एक प्रधान आचार्य