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सिद्धान्त
१४३ रहता है । संस्कारसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिसे संस्कारकी परम्परा अनादिकाल से चली आती है । इसीका नाम संसार है । यह संस्कार ही धर्म, अधर्म, कर्माशय आदि नामोंसे पुकारा जाता है । किन्तु जैनदर्शनके मतानुसार कर्मका स्वरूप किसी अंशमें इससे भिन्न है । जैनदर्शनमें कर्म केवल एक संस्कारमात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी द्वेषी जीवकी क्रियासे आकृष्ट होकर जीवके साथ मिल जाता है । यद्यपि वह पदार्थ भौतिक है तथापि जीवके कर्म अर्थात् क्रियाके द्वारा आकृष्ट होकर वह जीवसे बँधता है इसलिये उसे कर्म कहते हैं। आशय यह है कि जहाँ अन्य धर्म राग और द्वेषसे युक्त जीवकी प्रत्येक क्रियाको कर्म कहते हैं और उस कर्मके क्षणिक होनेपर भी उसके संस्कारको स्थायी मानते हैं, वहाँ जैनदर्शनका कहना है कि राग द्वेषसे युक्त जीवकी प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाके साथ एक द्रव्य जीव में आता है जो उसके रागद्वेषरूप भावोंका निमित्त पाकर जीव से बँध जाता है, और आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है । इसका खुलासा यह है कि पद्गलद्रव्य २३ तरहकी वर्गणाओं में बँटा हुआ है । उन वर्गणाओं में से एक कार्मणवर्गणा भी है, जो सब संसार में व्याप्त है । जीवके कार्योंके निमित्तसे यह कार्मणवर्गणा ही कर्मरूप हो जाती है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है
'परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहि ।। ९५ ।'
-प्रवच०
'जब राग द्वेषसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामोंमें लगता है तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरण आदि रूपसे उसमें प्रवेश करता है । '
इस प्रकार कर्म एक मूर्त पदार्थ है जो जीवके साथ बँध जाता है ।