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जैनधर्म कर्मबन्धनोंसे जीवके छूट जानेको मोक्ष कहते हैं। मोक्ष या मुक्ति शब्दका अर्थ ही छुटकारा है । जब जीव सब कर्मबन्धनोंसे छूट जाता है तो उसे मुक्त जीव कहते हैं।
इस प्रकार उक्त सात तत्त्वोंमेंसे जीव और अजीव दो मूल तत्त्व हैं, उनके मेलसे ही संसारकी सृष्टि होती है । संसारके मूल कारण आम्रव और बन्ध हैं और संसारसे मुक्त होनेके कारण संवर और निर्जरा हैं। संवर और निर्जराके द्वारा जीवको जो पद प्राप्त होता है वह मोक्ष है, जो कि प्रत्येक जीवका चरम लक्ष्य है। उसीकी प्राप्तिके लिये उसका प्रयत्न चालू रहता है, जिसे हम धर्मके नामसे पुकारते हैं। अतः जो जीव अपने उस चरम लक्ष्यको प्राप्त करना चाहता है उसे उक्त सात तत्त्वोंका ज्ञान होना आवश्यक है।
१०. कर्म सिद्धान्त
कर्मका स्वरूप प्राणी जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। मोटे तौरसे यही कर्मसिद्धान्तका अभिप्राय है। इस सिद्धान्तको जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि आत्मवादी दर्शन तो मानते ही हैं, किन्तु अनात्मवादी बौद्धदर्शन भी मानता है। इसी तरह ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी इसमें प्रायः एकमत हैं । किन्तु इस सिद्धान्तमें ऐकमत्य होते हुए भी कर्मके स्वरूप और उसके फल देनेके सम्बन्धमें दोनोंमें मौलिक मतभेद है। साधारणतौरसे जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। जैसे-खाना, पीना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, सोचना वगैरह। परलोकको मानने वाले दार्शनिकोंका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कर्म अपना संस्कार छोड़ जाता है, क्योंकि हमारे प्रत्येक कर्म या प्रवृत्तिके मूलमें राग और द्वेष रहते हैं। यद्यपि प्रवृत्ति या कर्म क्षणिक होता है तथापि उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी