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४. जैन साहित्य
जैन साहित्य बड़ा विशाल है, भारतीय साहित्य में उसका एक विशिष्ट स्थान है । लोकोपकारी, अनेक जैनाचार्योंने अपने जीवनका बहुभाग उसकी रचनामें व्यतीत किया है। जैनधर्म में बड़े-बड़े प्रकाण्ड जैनाचार्य हो गये हैं जो प्रबल तार्किक वैयाकरण, कवि और दार्शनिक थे । उन्होंने जैनधर्मके साथ-साथ भारतीय साहित्यके इतर क्षेत्रों में भी अपनी लेखनीके जौहर दिखलाये हैं । दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, कथा, शिल्प, मन्त्र-तन्त्र, वास्तु, वैद्यक आदि अनेक विषयोंपर प्रचुर जैनसाहित्य आज उपलब्ध है और बहुत-सा धार्मिक द्वेष, लापरवाही तथा अज्ञानताके कारण नष्ट हो चुका ।
भारतकी अनेक भाषाओं में जैनसाहित्य लिखा हुआ है, जिनमें प्राकृत संस्कृत और द्रवेडियन भाषाओंका नाम उल्लेखनीय है। जैनधर्मने प्रारम्भसे ही अपने प्रचारके लिए लोक भाषाओंको अपनाया अतः अपने-अपने समयकी लोकभाषामें भी जैन साहित्यकी रचनाएँ पायी जाती हैं। इसीसे जर्मन विद्वान् डाक्टर विंटरनीजने अपने भारतीय साहित्य के इतिहासमें लिखा है - 'भारतीय भाषाओंके इतिहासकी दृष्टिसे भी जैन साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि जैन सदा इस बातकी विशेष परवाह रखते थे कि उनका साहित्य अधिक से अधिक जनता के परिचयमें आये । इसीसे आगमिक साहित्य तथा प्राचीनतम टीकाएँ प्राकृतमें लिखी गयीं । श्वेताम्बरोंने ८ वीं शतीसे और दिगम्बरांने उससे कुछ पहले संस्कृतमें रचनाएँ करना आरम्भ किया । बादको १०वीं से १२वीं शती तक अपभ्रंश भाषामें, जो उस समयकी जन भाषा थी, रचनाएँ की गयीं ।
1. 'A History of Indian Literature' Vol. II. P. 427-428.