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जैनधर्म
वे जीव मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं। जैसे ज्वरवालेको मधुर रस भी अच्छा मालूम नहीं होता वैसे ही उन्हें भी धर्म अच्छा नहीं मालूम होता । संसारके अधिकतर जीव इसी श्रेणीके होते हैं ।
२. सासादनसम्यग्दृष्टि - जो जीव मिथ्यात्व कर्मके उदयको हटाकर सम्यग्दृष्टि हो जाता है वह जब सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्व में जाता है तो दोनोंके बीचका यह दर्जा होता है। जैसे पहाड़की चोटीसे यदि कोई आदमी लुड़के तो जबतक वह जमीनमें नहीं आ जाता तबतक उसे न पहाड़ीकी चोटीपर ही कहा जा सकता है और न जमीनपर ही, वैसे ही इसे भी जानना चाहिये । सम्यक्त्व चोटीके समान है, मिध्यात्व जमीनके समान है और यह गुणस्थान बीचके ढालू मार्गके समान है । अतः जब कोई जीव आगे कहे जानेवाले चौथे गुणस्थानसे गिरता है तभी यह गुणस्थान होता है । इस गुणस्थानमें आनेके बाद जीव नियमसे पहले गुणस्थानमें पहुँच जाता है।
३. सम्यगूमिध्यादृष्टि — जैसे दही और गुड़को मिला देनेपर दोनोंका मिला हुआ स्वाद होता है उसी प्रकार एक ही कालमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणामोंको सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं |
४. असंयतसम्यग्दृष्टि - जिस जीवकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । और जो जीब सम्यग्दृष्टि तो होता है किन्तु संयम नहीं पालता वह असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। कहा भी है
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'णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वा वि ।
जो सद्दहदि जिणतं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२९॥ '
-गो० जीव०
'जो न तो इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त है और न त्रस और स्थावर जीवोंको हिंसाका ही त्यागी है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा