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जैनधर्म को जो अधिकार प्राप्त हैं वे हिन्दूधर्ममें नहीं हैं। जैन सिद्धान्तके अनुसार पुत्ररहित विधवा स्त्री अपने पतिकी तरफसे सम्पत्तिकी मालकिन हो सकती है, अपने मृत पति तथा उसके उत्तराधिकारियोंकी सम्मतिके बिना दत्तक ले सकती है।
जैनसंघमें चारों वर्णके लोग सम्मिलित हो सकते थे। शूद्रको भी धर्मसेवनका अधिकार था । जैसा कि लिखा है'शुद्रोऽप्युपस्कराचारवपुशुद्धयाऽस्तु तादृशः । जात्या होनोऽपि कालादिलब्धौ ह्मात्माऽस्ति धर्मभाक ॥२२॥'
-सागारधर्मा० । अर्थात्-'उपकरण, आचार और शरीरकी शुद्धि होनेसे शूद्र भी जैनधर्मका अधिकारी हो सकता है क्योंकि काललब्धि आदिके मिलनेपर जातिसे हीन आत्मा भी धर्मका अधिकारी होता है।' . किन्तु मुनिदीक्षाके योग्य तीन ही वर्ण माने गये हैं। किसी 'किसी आचार्यने तीनों वर्णोंको परस्परमें विवाह और खानपान करनेकी भी अनुज्ञा दी है। यह बात जैनसंघकी विशेषताको बतलाती है कि अहिंसा अणुव्रतका पालन करनेवालोंमें जैनशास्त्रोंमें यमपाल चण्डालका नाम वड़े आदरसे लिया गया है । स्वामी समन्तभद्रने यहाँतक लिखा है
"सन्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरोजसम् ॥२८॥" -रत्नकरण्ड श्रा।
अर्थात्-"सम्यग्दर्शनसे युक्त चण्डालको भी जिनेन्द्रदेव राखसे ढके हुए अङ्गारके समान (अन्तरंगमें दीप्तिसे युक्त) देव मानते हैं।" __ जैनसंघकी एक दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि प्रत्येक जैनको अपने साधर्मी भाईके प्रति वैसा ही स्नेह रखनेकी हिदायत है जैसा स्नेह गौ अपने बच्चेसे रखती है। तथा यदि कोई साधर्मी किसी कारणवश धर्मसे च्युत होता था तो जिस
१. 'परस्परं त्रिवर्णानां विवाहः पंक्तिभोजनम्' ।