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________________ सामाजिक रूप २८७ बढ़ चला था और लोगों में मुनियोंकी ओरसे यहाँतक अरुचि - सी हो चली थी कि श्रावक उन्हें भोजन भी नहीं देते थे । अतः उस समय सोमदेव सूरि और पं० आशाधरजीको अपने-अपने श्रावकाचारमें गृहस्थोंकी इस कड़ाईका विरोध करना पड़ा था। सोमदेवसूरि लिखते हैं "भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम् । ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ॥” – उपासका० । अर्थात् — “आहारमात्र देनेमें मुनियोंकी क्या परीक्षा करते हो ? वे सज्जन हों या असज्जन हों, गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता ही हैं । " पं० आशाधरजी लिखते हैं “विन्यस्यैदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव । भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत् कुतः श्रेयोऽतिचचिनाम् ॥” - सागरघर्मा ०। अर्थात् – “जैसे प्रतिमाओंमें तीर्थङ्करोंकी स्थापना करके उन्हें पूजते हैं वैसे ही इस युगके साधुओंमें प्राचीन मुनियोंकी स्थापना करके भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करना चाहिये । जो लोग ज्यादा क्षोदक्षेम करते हैं उनका कल्याण कैसे हो सकता है ?" गृहस्थोंकी इस जागरूकताके फलस्वरूप ही जैनधर्म में अनाचारकी वृद्धि नहीं हो सकी और न उसे प्रोत्साहन ही मिल सका। जैन गृहस्थोंमें सदासे शास्त्रमर्मज्ञ विद्वान् होते आये हैं । जिन विद्वानोंने बड़े-बड़े प्रन्थोंकी हिन्दी टीकाएँ की हैं वे सभी जैन गृहस्थ थे। उन्होंने अपने सम्प्रदायमें फैलनेवाले शिथिलाचारका भी डटकर विरोध किया था, जिसके फलस्वरूप एक नया सम्प्रदाय बन गया और शिथिलाचारके सर्जकोंका लोप ही हो गया । जैनसंघ में स्त्रियों को भी आदरणीय स्थान प्राप्त था। दिगम्बर सम्प्रदाय यद्यपि स्त्री-मुक्ति नहीं मानता फिर भी आर्यिका और श्राविकाओंका बराबर सन्मान करता है और उन्हें बहुत ही आदर और श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता है। जैनसंघमें विधवा
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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