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________________ १६ २८९ सामाजिक रूप उपायसे भी बने उस उपायसे उसे च्युत न होने देनेका प्रयत्न किया जाता था और यह सम्यक्त्वके आठ अंगोंमेंसे था। साथ ही साथ किसी भी साधर्मीका अपमान न करनेको सख्त आज्ञा थी, जैसा कि लिखा है "स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान गविताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकविना ॥२६॥" रत्नकरण्ड श्रा०। 'जो व्यक्ति घमंडमें आकर अन्य धर्मात्माओंका अपमान करता है वह अपने धर्मका अपमान करता है, क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्म नहीं रहता।' इस तरह जैनसंघकी विशालता, उदारता और उसकी संगठन-शक्तिने किसी समय उसे बड़ा बल दिया था और उसीका यह फल है कि बौद्धधर्मके अपने देशसे लुप्त हो जानेपर भी जैनधर्म बना रहा और अबतक कायम है। किन्तु अब वे बातें नहीं रहीं । लोगोंमें साधर्मी-वात्सल्य लुप्त होता जाता है, अहंकार बढ़ता जाता है, और किसीपर किसीका नियंत्रण नहीं रहा है । इसीलिए वह संगठन भी अब शिथिल होता जाता है। २. संघभेद जैन तीर्थङ्करोंने धर्मका उपदेश किसी सम्प्रदायविशेषकी दृष्टि से नहीं किया था। उन्होंने तो जिस मार्गपर चलकर स्वयं स्थायी सुख प्राप्त किया, जनताके कल्याणके लिये ही उसका प्रतिपादन किया। उनके उपदेशके सम्बन्धमें लिखा है "अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥८॥" रत्नकरंड श्रा० । अर्थात्-'तीर्थङ्कर बिना किसी रागके दूसरोंके हितका उपदेश देते हैं। शिल्पीके हाथके स्पर्शसे शब्द करनेवाला मृदङ्ग क्या कुछ अपेक्षा करता है ? अर्थात् जैसे शिल्पीका हाथ पड़ते ही मृदङ्गसे ध्वनि निकलती
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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