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________________ १२० जैनधर्म विनाश कर देनेसं उसे ईश्वरत्वपद प्राप्त नहीं हुआ है, किन्तु सदासे ही उनसे वह सर्वथा रहित है। इसीलिये वह सबसे बड़ा है, सवका गुरु है, सबका ज्ञाता है । जो संसारी जीव क्लेश कर्म आदिको नष्ट करके मुक्त होते हैं, वे कभी भी उसके बराबर नहीं हो सकते । उसका एश्वर्य अविनाशी है, क्योंकि कालके द्वारा उसका कभी नाश नहीं होता। ऐसे अनादि-अनन्त पुरुषविशंपको ईश्वर कहा जाता है। किन्तु जैनधर्ममें इस प्रकारके ईश्वरके लिये कोई स्थान नहीं है । उसका कहना है 'नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद् विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्यानुपायमिद्धस्य सर्वथाप्नुपपत्तितः ॥८॥'-आप्तप० । 'कोई सर्वद्रष्टा सदासे कर्मास अछूना हो नहीं सकता; क्योंकि बिना उपायके उसका सिद्ध होना किसी भी तरह नहीं बनता।' असलमें ईश्वरको अनादि माननेके कारण उसे सदा कर्मोसे अछूता माना गया है और चूंकि वह सृष्टिका रचयिता है इसलिये उसे अनादि माना गया है। किन्तु जैनधर्म किसीको इस विश्वका रचयिता नहीं मानता, जैसा कि हम पहले बनला आये हैं । अतः वह किसी एक अनादिसिद्ध परमात्माकी सत्तासे इंकार करता है। उसके यहाँ यदि ईश्वर है तो वह एक नहीं, बल्कि असंख्य हैं । अर्थात् जैनधर्मके अनुसार इतने ईश्वर हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। उनकी संख्या अनन्त है और आगे भी वे बराबर अनन्तकाल तक होते रहेंगे; क्योंकि जैनसिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ताको लिये हुए मुक्त हो सकता है। आज तक ऐसे अनन्त आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होंगे। ये मुक्त जीव ही जैनधर्मके ईश्वर हैं । इन्होंमेंसे कुछ मुक्तात्माओंको जिन्होंने मुक्त होनेसे पहले संसारको मुक्तिका मार्ग बतलाया था, जैनधर्म तीर्थक्कर मानता है।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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