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सिद्धान्त
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जैनधर्मका मन्तव्य है कि अनादिकालसे कर्मबन्धनसे लिप्त होनेके कारण जीव अल्पज्ञ हो रहा है । ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंके द्वारा उसके स्वाभाविक ज्ञान आदि सद्गुण ढंके हुए हैं । इन आवरणोंके दूर होनेपर यह जीव अनन्त ज्ञान आदिका अधिकारी होता है अर्थात् सर्वज्ञ हो जाता है । जो जो महापुरुष कर्मबन्धनको काटकर मुक्त हुए हैं, वे सब सर्वज्ञ हैं । कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोंका पूर्ण विकास नहीं होने देता । उसके दूर होनेपर प्रत्येक जीव अपनी-अपनी स्वाभाविक शक्तियोंको प्राप्त कर लेता है । मतलब यह है कि जीवोंका कर्मबन्धन तथा जीवोंका मर्यादित किन्तु हीनाधिक ज्ञान इस बातको बतलाता है कि जीवोंकी मुक्ति तथा उनकी सर्वज्ञता असंभव वस्तु नहीं है । तथा जो जो सर्वज्ञ होता है वह कर्मबन्धनको काटकर ही सर्वज्ञ होता है, उसके बिना कोई सर्वज्ञ हो नहीं सकता । इसलिये अनादि सिद्ध कोई नहीं हैं ।
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कर्मबन्धनका विशेष वर्णन आगे कर्मसिद्धान्त में किया गया है । चार घातिकर्माका नाश करके यह जीव सर्वज्ञ हो जाता है । सर्वज्ञका दूसरा नाम केवली भी है। क्योंकि उसका ज्ञान और दर्शन आत्माके सिवा किसी अन्य सहायककी अपेक्षा नहीं करता, अतः वह केवली कहा जाता है । उसे जीवन्मुक्त भी कहा जा सकता है, क्योंकि यद्यपि अभी वह सशरीर है, किन्तु घातिकर्मोंके नष्ट हो जानेके कारण मुक्तात्माके ही समान है । वह चार घातियाकर्मोंका नाश कर देता हूँ इसलिये उसे 'अरिहंत' भी कहते हैं। उसे ही 'जिन' कहते हैं, क्योंकि वह कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लेता है। ये केवली जिन दो प्रकारके होते हैं - एक सामान्य केवली और दूसरे तीर्थङ्कर केवली । सामान्य केवली अपनी ही मुक्तिकी साधना करते हैं, किन्तु तीर्थकर केवली अपनी मुक्तिकी साधनाके बाद संसारी जीवोंको भी मुक्तिका समस्त दुःखोंसे छूटनेका मार्ग बताते हैं । इनके