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जैनधर्म
१२२ उपदेशसे संसारके अनेक जीव तर जाते हैं इसलिये वे तीर्थस्वरूप गिने जाते हैं।
जैसे ब्राह्मणधर्म में रामचन्द्रजी आदिको अवताररूप माना जाता है या बौद्धधर्ममें बुद्धकी मान्यता है वैसे ही जैनधर्म में तीर्थङ्करोंकी मान्यता है । किन्तु ये तीर्थङ्कर किसी परमात्माका अवताररूप नहीं होते, बल्कि संसारी जीवोंमेंसे ही कोई जीव प्रयत्न करते-करते लोककल्याणकी भावनासे तीर्थङ्करपद प्राप्त करता है। जब कोई तीर्थङ्करपद प्राप्त करनेवाला जीव माताके गर्भ में आता है तब तीर्थङ्करकी माताको सोलह शुभ स्वप्न दिखाई देते हैं। तीर्थङ्करोंके गर्भावतरण, जन्माभिषेक, जिनदीक्षा, केवलज्ञानप्राप्ति और निर्वाण-प्राप्ति ये पञ्च महाकल्याणक होते हैं, जिनमें इन्द्रादिक भी सम्मिलित होते हैं। इन पञ्च महाकल्याणकरूप पूजाके कारण तीर्थङ्करको 'अर्हत्" भी कहा जाता है।
तीर्थङ्कर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त वीर्यके धारी होते हैं। ये साक्षात् भगवान या ईश्वर होते हैं। जैनसाहित्यमें इनके ऐश्वर्यका बहुत वर्णन मिलता है। ये जन्मसे ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञानके धारी होते हैं। जन्मसे ही इनका शरीर अपूर्व कान्तिमान होता है। इनके निश्वासमें अपूर्व सुगन्धि रहती है। इनके शरीरका रक्त और माँस सफेद होता है। केवलज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात् अर्थात् अर्हन् पद प्राप्त कर लेनेपर उनका उपदेश सुननेके लिये पशुपक्षी तक इनकी सभामें उपस्थित होते हैं। इस सभाको 'समव
१. 'सम्भवतः इस 'अर्हत्' नाम परसे हिन्दू पुराणकारोंने यह कल्पना कर डाली है कि किसी 'अर्हत्' नामके राजाने जैनधर्मको स्थापना की थी। अर्हत किसीका नाम नहीं है बल्कि जैन तीर्थंकरोंका एक पद है। इस पदको प्राप्त कर लेनेपर ही वे जीवनमुक्त होकर संसारको कल्याणका मार्ग बतलाते हैं वही मार्ग उनके 'जिन' नाम परसे जैनधर्म कहा जाता है।