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सिद्धान्त सरण' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है 'समानरूपसे सबका शरणभूत' अर्थात् जिसकी शरणमें सब आते हैं। इस सभामें बारह प्रकोष्ठ होते हैं, जिनमें एक प्रकोष्ठ पशुओंके लिये भी होता है। तीर्थङ्करकी वाणीको पशु भी समझ लेते हैं। जहाँ जहाँ इनका विहार होता है वहाँ वहाँ रोग, वैर, महामारी, अतिवृष्टि, दुर्मिन, आदि रह नहीं सकते। तीर्थङ्कर भगवानके पधारनेके साथ ही देशमें सर्वत्र शान्ति छा जाती है। कैवल्यलाभ करनेके पश्चात् ये अपना शेष जीवन संसारके प्राणियोंका उद्धार करनेमें ही व्यतीत करते हैं। इसीसे जैनोंके परमपवित्र पञ्च नमस्कार मंत्रमें अरिहंतको प्रथम स्थान दिया गया है
णमो अरिहंताणं-अर्हन्तोंको नमस्कार हो।
जब इन अर्हन्तोंकी आयु थोड़ी शेष रह जाती है तब ये योगका निरोध करके बाकी बचे चार अघातिया कर्मोको भी नष्ट कर देते हैं। चारों अघातिया कर्मोंका भी नाश होनेपर इन्हें मुक्तिकी प्राप्ति होती है। इनका शरीर यहीं छूट जाता है और अपने स्वभाविक ज्ञानादि गुणोंसे युक्त केवल शुद्ध आत्मा रह जाता है, जो मुक्त होनेके पश्चात् स्वाभाविक उद्ध्वंगमनके द्वारा लोकके ऊपर अग्रभागमें जाकर ठहर जाता है। मुक्त होनेके पश्चात् सामान्य केवली और तीर्थकर केवलीमें कोई अन्तर नहीं रहता, दोनोंको एक ही प्रकारकी मुक्ति प्राप्त होती है। यद्यपि संसारमें सामान्य केवलीकी अपेक्षा तीर्थङ्कर केवली अधिक पूजनीय माने जाते हैं, क्योंकि तीर्थङ्कर केवलीसे संसारको बहुत लाभ पहुँचता है, किन्तु मुक्त होनेपर दोनोंमें इस तरहका कोई अन्तर नहीं रहता। संसार अवस्थामें जो कुछ अन्तर था वह तीर्थङ्कर पदके कारण था । मुक्त होनेपर इस पदसे भी मुक्ति मिल जाती है, अतः मुक्तिमें सामान्य केवली
और तीर्थङ्कर केवलीमें कोई भेद नहीं रहता। दोनों मुक्त कहे जाते हैं। मुक्तोंको जैनसिद्धान्तमें 'सिद्ध' भी कहते हैं। यद्यपि अर्हन्तोंसे सिद्धोंका पद ऊँचा है; क्योंकि अर्हन्त कर्मबन्धनसे